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सोमवार, 30 दिसंबर 2019

यात्रा वृतांत – कुल्लु घाटी के एक शांत-एकांत रिमोट गाँव में, भाग-1



जापानी फल के एक अद्भुत बाग में
  गड़सा घाटी के सुदूर गाँव भोसा की ओर
कई वर्षों से निर्धारित हो रही यात्रा का संयोग आज नवम्बर माह के दूसरे सप्ताह में बन रहा था। पिछले तीन दशकों से गड़सा घाटी के इस रिमोट गांव के वारे में सुना था। यहाँ की यात्रा का मन बन चुका था, यहाँ के प्रगतिशील किसान, कवि, दार्शनिक एवं सामाजिक कार्यकर्ता श्री हुकुम ठाकुर से आज मिलने का संकल्पित प्रयास फलित हो रहा था। रिश्ते में बैसे हमारे जीजाजी लगते हैं, लेकिन प्रत्यक्ष मुलाकात आज पहली बार होने वाली थी।
इनके जापानी फल के प्रयोग को अपने भाईयों से सुन चुका था, जो यदा-कदा इनसे मिलते रहते हैं। प्रत्यक्षतः इस अभिनव प्रयोग को देखने का मन था। इनका जापानी फल को समर्पित बाग संभवतः कुल्लु ही नहीं बल्कि पूरे हिमाचल एवं भारत के पहाडी प्राँतों का पहला सुव्यव्थित बाग है, जो रिकोर्ड उत्पादन के साथ रिकोर्ड आमदनी भी देता है।
यह इनकी प्रयोगधर्मिता एवं अथक श्रम का परिणाम है कि सीधे दिल्ली से फल बिक्रेता इनके फल की एडवांस बुकिंग करते हैं, बगीचे में ही इन्हें मूंह माँगा दाम मिल जाता है। होर्टिकल्चर यूनिवर्सिटी के शोधार्थियों के लिए इनका बाग एक जीवंत प्रयोगशाला है, जहाँ वे अपने शोध-अध्ययन के उद्देश्य से आते रहते हैं। जापानी फल को सेब से बेहतर ब्राँड बना चुके इस प्रगतिशील बागवान के बगीचे व गाँव को देखने की चिरप्रतिक्षित इच्छा आज पूरा हो रही थी।
इस लिए यह यात्रा हमारे लिए विशेष थी, विशिष्ट थी। यह एक संकल्पित यात्रा थी, जो न जाने कितनी परिस्थितिजन्य बिघ्न-बाधाओं के विषम प्रवाह को चीरते हुए सम्पन्न हो रही था, जिसकी योजना गंभीरतापूर्वक पिछले दो-तीन सालों से बन रही थी। फिर दोनों भाईयों संग यात्रा का संयोग बहुत अर्से बाद बन रहा था।
भूंतर हवाई अड्डे के आगे बजौरा से वायीं ओर लिंक रोड़ से होकर पुल पार करते ही थोड़ी देर में हम गड़सा घाटी में प्रवेश कर रहे थे।
यह घाटी भूंतर से होकर जाने वाली मणिकर्ण घाटी जैसी ही संकरी घाटी है व उसी के समानान्तर आगे बढती है। अंतर इतना है कि यह थोड़ा चौड़ी है, जिसमें अनार के बगीचे बहुतायत में लगे हुए हैं। यह क्षेत्र थोड़ा कम ऊँचाई का है, अतः यहाँ सेब की बजाए अनार अधिक फलता है। इस सीजन में इसके पत्ते पीला रंग ले रहे थे। सो दूर से ही इसके बगीचों के पीले रंग के पैच के साथ घाटी एक अलग ही रंगत लिए दिख रही थी। इसकी राह में शांत स्वभाव की गड़सा नदी का निर्मल जल धीमे-धीमे व्यास नदी की ओर प्रवाहमान था। नदी के किनारे बीएड कालेज की भव्य इमारत ध्यान आकर्षित करती है। साथ ही आगे नदी के किनारे कई किमी तक फैला भेड़ पालन का भारत का सबसे बड़ा केंद्र, जो इस बीहड़ एकांत में अपनी अद्भुत उपस्थिति दर्ज कर रहा था।
इसके आगे गड़सा कस्बा आता है, जिसके कुछ आगे वायीं ओर से लिंक रोड़ दियार-हवाईशाह इलाके की ओर जाता है, जो पीछे पहाड़ों की ऊँचाईयों में बसे गाँव हैं। इसी लिंक रोड़ पर दो किमी आगे वायीं ओर एक संकरा लिंकरोड़ भोसा गाँव की ओर बढ़ता है, जो हमारा आज का गन्तव्य स्थल था। पहाड़ी सड़क के सहारे हम आगे बढ़ रहे थे। ढलानदार खेतों में पारम्परिक खेती-वाड़ी ही अधिक दिखी। कुछ खेतों में अनार के पनप रहे बगीचे दिखे, जिसमें किसान काम कर रहे थे। घाटी के उस पार एक गाँव से धुँआ उठ रहा था, संयोग से हमारी मंजिल यही गाँव था।
लो ये क्या, गाड़ी एक स्थान पर रुक गई। यहाँ से घाटी के उस पार गाँव के दर्शन हो रहे थे और साथ ही जापानी फल के बगीचे के दूरदर्शन भी। घर के साथ सटे घने हरे पत्तों से भरे एक पैच में लाल-पीले फल हरियाली के बीच स्पष्ट झाँक रहे थे। इलाके का यह इक्लौता बगीचा इस विरान घाटी में कुछ ऐसे शोभायमान था, जैसे बीहड़ बन में जंगल का राजा शेर। शीघ्र ही हम जापानी फल के इस अभिनव प्रयोग के प्रत्यक्षदर्शी होने जा रहे थे।
रास्ते में एक नाला पड़ा, जो पीछे पहाड़ों से होकर आता है। यही नाला यहां की जीवन रेखा है, जो यहाँ के खेतों एवं बागों को सींचित करता है। कुछ ही मिनटों में हम गाँव के बीच पहुँच चुके थे। स्वागत के लिए जीजाजी सड़क पर खडे थे। 
घनी दाढ़ी, मध्यम कद-काठी, गठीला शरीर। एक विचाशील, गंभीर एवं रफ-टफ किसान की छवि। एक-दूसरे से चिर आकाँक्षित मुलाकात की खुशी दोनों ओर से झलक रही थी। उनके पीछे चलते हुए हम सड़क के नीचे इनके बगीचे से होते हुए घर तक पहुँचते हैं। यहाँ आंगन में सजी कुर्सियों पर बैठते हैं, जहाँ सामने जापानी फलों से लदे हरे-भरे सुंदर पेड़ अपनी पूर्ण भव्यता के साथ विराजमान थे और अपनी शानदार उपस्थिति के साथ हमें रोमाँँचित कर रहे थे। कई प्रश्न जेहन में कौंध रहे थे, जिनका समाधान अगली चर्चा के साथ होना था।
श्री हुकुम ठाकुरजी से हुई चर्चा और इनके जापानी फल के बाग की सैर के अनुभव अगली ब्लॉग पोस्ट में शेयर कर रहे हैं। (जारी...अगली ब्लॉग पोस्ट - जापानी फल के मॉडल बाग में)


गुरुवार, 1 मार्च 2018

यात्रा वृताँत – कुल्लू से नेहरुकुंड-वशिष्ठ वाया मानाली लेफ्ट बैंक


बर्फीली बादियों के बीच गर्मचश्मों का यादगार सफर


अपर बैली – कुल्लू जिला भौगोलिक दृष्टि से हिमाचल प्रदेश के लगभग ह्दय क्षेत्र में विराजमान है। इसमें कई घाटियाँ हैं, जैसे-पार्वती वैली, बंजार-सैंज वैली, गड़सा वैली, डुग्गी लग वैली, फोजल वैली आदि, जो विभिन्न छोटी नदियों के ईर्द-गिर्द बसी हैं। कुल्लू शहर के सामने की खराहल वैली के आगे मानाली की ओर ब्यास नदी के दोनों ओर नेशनल हाईवे के साथ 40-50 किमी लम्बी और 2-4 किमी चौड़ी अप्पर वैली पड़ती है, जो शायद स्वयं में सभी घाटियों की सरताज है।


एक तो इसके अप्रतिम प्राकृतिक सौंदर्य के कारण, दूसरा इससे जुड़े पर्यटन एवं तीसरा इसके फल-सब्जी उत्पादन में अग्रणी भूमिका के कारण। फिर यहाँ की ऐतिहासिक और आध्यात्मिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि भी अनुपम और बेजोड़ है। प्रकृति ने जैसे दिल खोलकर घाटी पर अपने अनुदान वरसाए हैं। वर्षभर बर्फीली घाटियों व ग्लेशियरों से पोषित इसकी हिमानियों का जल किसी मिनरल वाटर से कम नहीं होता, जो बर्षभर भूमि को निर्बाध रुप से सींचित करता रहता है। हालाँकि ग्लोबल वार्मिंग की झुलसन कुछ-कुछ यहाँ भी अहसास होने लगी है, लेकिन अभी स्थिति मैदानों की तुलना में बहुत बेहतर है।

आज अंतिम दिन था, घर से बापिस शिमला होते हुए हरिद्वार आने का, सो दिन का समय अपर बैली को एक्सप्लोअर करने का था। मन था कि वशिष्ट कुंड के पावन गर्म कुंड में डुबकी लगाकर तीन-चार दिनों की थकान व ठंड की जकड़न से निजात पा लें।

मोटा अनुमान था की घाटी में ऊच्च शिखरों पर बर्फवारी के चलते सोलांग घाटी में तो बर्फ के दर्शन तो हो ही जाएंगे। सो सेऊबाग से काईस, अरछंडी, लरांकेलो, नग्गर-छाकी, सजला, जगतसुख, अलेऊ से होते हुए मनाली के आगे लेफ्ट बैंक से बांहग घाटी की ओर बढ़ते हैं। छोटे भाई के साथ काईस में भगवती माँ दशमी वारदा को माथा टेकर सफर आगे बढ़ता है।


काईस नाला को पार करते ही नवनिर्मित बौद्ध गोंपा सफर का एक नया आकर्षण है। इसके समानान्तर व्यास नदी के उस पार मंद्रोल, रायसन घाटियाँ आती हैं, जो फल उत्पादन, विशेषकर प्लम-सेब के लिए प्रख्यात हैं। इसके आगे कराड़सू पार करते ही लरांकैलो में काली माता मंदिर के आगे अप्पर वैली में प्रवेश का अहसास होता है। खुली घाटी, देवदार के वृक्षों की सघनता इसका परिचय देती है और साथ ही सड़क के दोनों ओर सेब के बाग। सेब के सीजन में सफर का रोमाँच अलग ही रहता है, जब ये बगीचे लाल-लाल सेब से लद्दे होते हैं। और सर्दी में बर्फ से ढकी पहाड़ियों से घिरी घाटी में सफर का एक अलग आनन्द रहता है।

इसी राह में नग्गर कस्बा बीच का पड़ाव है, जो कभी कुल्लू रियासत की पुरानी राजधानी रही है। यहाँ बहुत कुछ दर्शनीय है। 2-3 किमी की दूरी पर रुसी चित्रकार, विचारक एवं संत निकोलाई रोरिक के अंतिम बीस वर्षों के सृजन एवं एकांतवास की स्थली है, जो अपनी नीरव-एकांत स्थिति एवं प्राकृतिक सौंदर्य़ के कारण प्रकृति प्रेमियों व कलाकारों को देश ही नहीं विश्वभर से आकर्षित करती है।
राह में हेरिटेज होटेल में तबदील राजमहल-नग्गर कैसल भी एक दर्शनीय स्थलल है, जहाँ से चाय की चुस्की के साथ घाटी के विहंगावलोकन का लुत्फ उठाया जा सकता है।
यहाँ पर विराजमान जगती पोट(देवशिला) क्षेत्रीय देवताओं के केंद्रिय स्थल के रुप में लोक आस्था का केंद्र है। इसी के साथ सुप्रसिद्ध त्रिपुरा सुंदरी एवं नरसिंह भगवान के मंदिर हैं। यहां से नीचे की ओर छोटे वाहन या लोक्ल बस में नग्गर जाणा फाल की अविस्मरणीय यात्रा का आनन्द किया जा सकता है। 10-12 किमी का देवदार के घने बनों, सेब के बागानों व विरल वादी के बीच का यह सफर एक अलग ही दुनियाँ में विचरण का विरल अहसास दिलाता है।
नग्गर से हमारे भाँजे अमर ठाकुर का मिलन होता है। इनका ट्रैकिंग-माउंटेअरनिंग का गहरा अनुभव सफर के रोमाँचक में बूस्टर का काम करता है। इसके आगे छाकी गाँव से भाई देवेंद्र जुड़ते हैं। इस तरह चार एडवेंचर प्रेमियों के संगम के साथ सफर का रोमांच आगे बढ़ता है।
नग्गर से आगे घाटी के सौंदर्य में क्रमशः निखार आता है। उच्चतर हिमालयन क्षेत्र की गहनता में प्रवेश का अहसास होता है। बर्फीली हवा की बढ़ती शीतलता अहसास को क्रमशः तीखा करती है। देवदार के जंगल एकदम गाँव-कस्वों के साथ सटे मिलते हैं व बीच में तो पूरा रास्ता ही इनके सघन आच्छादन के छायादार मार्ग से होकर गुजरता है। इस लोकेशन पर कई फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है। जिसमें फिल्म 1971 का दृश्य आप बखूबी याद कर सकते हैं।
राह में धान के सीढ़ीदार खेत घाटी के सौंदर्य में चार चांद लगाते हैं। कभी ये भूरे-लाल रंग के स्वादिष्ट जाटू चाबल व राजमाह दाल के लिए प्रख्यात थे। लेकिन आज अधिकाँशतः यहाँ सेब के बाग लग चुके हैं।
घाटी की पृष्ठभूमि में पश्चिम में हिमाच्छादित धौलाधार और उत्तर में पीरपंजाल पर्वतश्रृंखलाओं का विहंगम दृश्य पूरे रास्ते में यात्रियों को एक रोमाँच भरा अहसास दिलाते रहते हैं। राह में हरिपुर, सजला, गोजरा आदि कस्बों को पार करते हुए सफर जगतसुख क्स्बे तक पहुँचता है, जहाँ संध्या गाय़त्री का प्राचीन ऐतिहासिक मंदिर है। इसी मार्ग पर जगतसुख के पास अर्जुन गुफा है, जहाँ महाभारत कालीन किरात वेश में शिव और तपस्वी अर्जुन के बीच युद्ध का जिक्र आता है। गुफा हालांकि प्राकृतिक आपदा के कारण क्षतिग्रस्त हो चुकी है, लेकिन शबरी माता का भव्य मंदिर आज भी यहाँ इसकी गवाही दे रहा है।
मानाली से लगभग 10 किमी पहले ही सड़क के किनारे बर्फ पाकर हमें सुखद आश्चर्य हुआ, जिसकी हमें कोई आशा नहीं थी। मानाली के महज 2 किमी पहले अलेऊ गाँव आता है, जहाँ से नीचे आधा किमी की दूरी पर प्रख्यात पर्वतारोहण संस्थान है।
देवदार के घने जंगलों के बीच बसा यह संस्थान कई तरह के ट्रेकिंग व एडवेंचर कार्यक्रमों का चलाता है, जिनमें 15 दिन के एडवेंचर कोर्स, 1 माह के बेसिक व एडवांस कोर्स लोकप्रिय हैं। ऐसे ही पर्वतारोहण के प्रशिक्षण संस्थान उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी व प.बंगाल के दार्जिलिंग शहर में स्थित हैं, जिनका मुख्यालय एमएफआई (माउंटेयनरिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया) दिल्ली में स्थित है।
क्रमशः बर्फ सडक के दोनों किनारों पर बढ़ती गई। मनाली तक आते-आते पूरी घाटी बर्फ की चादर लपेटे दिखी। मालूम हो कि मानाली स्नो प्वाइंट की समीपता, शुद्ध-निर्मल जल की प्रचुरता के साथ अपनी समृद्ध सांस्कृतिक-आध्यात्मिक विरासत तथा सेब उत्पादन के चलते भारत ही नहीं वैश्विक पर्यटकों के बीच खासा लोकप्रिय है और भारत के शीर्ष हिल स्टेशनों की सूचि में शुमार है। 

मानाली की ओर बढ़ते हुए मार्ग में इसके विकसित स्वरुप का अहसास यात्री बखूबी कर सकते हैं। समयाभाव के कारण आज उस पार जाना संभव नहीं था, अतः हम लेफ्ट बैंक से सीधा बाहंग की ओर बढ़ रहे थे। इसके आगे नेहरु कुंड आया। माना जाता है कि नेहरुजी को यह स्थल व जल बहुत प्रिय था। स्थानीय लोगों के अनुसार, वे जब भी मानाली आते, यहीँ का जल पीते थे।

अनुमान है कि यह जायरु जल शिखर की गोद में स्थित भृगु झील का पानी है, जो भूमिगत होकर यहाँ निकलता है। अधिकाँश पर्यटक यहीं गाड़ी खड़ी कर किराए पर लिए गमबूट व विंड चीटर पहनकर बर्फ पर चहल कदमी कर रहे थे। कुछ याक की स्वारी का मजा ले रहे थे।

हम सोलंग घाटी को ही अपना लक्ष्य बनाकर आगे बढ़ते गए, लेकिन नेहरु कुंड से आगे दो मोड़ के बाद सफर थम गया, क्योंकि आगे भारी बर्फ के कारण सड़क बन रही थी और आगे जाना संभव नहीं था। सो गाड़ी को यहीं खड़ा कर बाहर निकल आए।
सो आखिर हम चिरप्रतिक्षित बर्फ की वादी में थे। 
कितने वर्षों बाद हम बर्फीली वादियों की गोद में थे, लग रहा था जैसे प्रकृति माँ लम्बे इंतजार का सुफल आज हमें झौलीभर कर बरसा रही थी। चारों ओर सिर्फ ओर सिर्फ बर्फ दिख रही थी। आसमान साफ था, दिन की धूप बरस रही थी, लेकिन बर्फीली हवा के सामने इसका तेज निस्तेज हो रहा था।
कुलमिलाकर मौसम बहुत खुशनुमा लग रहा था। घुटनों तक गिरी बर्फ के बीच स्टेप्स बनाते हुए आगे बढ़ते हुए चहलकदमी करते रहे। हिमक्रिम का गोला हाथ में लेकर इसको खाने का लोभ संवरण नहीं कर पाए। यथासंभव फोटो, वीडियोज एवं सेल्फी लेते हुए अंत में बापिस बशिष्ट की ओऱ चल दिए, जो बाहंग से ही मुडती सड़क से 1-2 किमी की दूरी पर है।।



ज्ञातव्य हो कि वशिष्ट गांव यहाँ का एक जाना-माना तीर्थस्थल है, जहाँ के गर्मजल के कुंड यहाँ के ठंडे मौसम के बीच पर्यटक ही नहीं, स्थानीय लोगों के बीच भी लोकप्रिय हैं, जिसका गंधक मिला जल न केवल चर्मरोगों का उपचार करता है, बल्कि इस पावन स्थल पर डुबकी समाधीसुख सरीखा आनन्द देती है। लोकमान्यता के अनुसार भगवान राम एवं लक्ष्मण के गुरु ऋषि वशिष्ट ने इस स्थल पर तप किया था। 
यहाँ से सामने मानाली गाँव व ऊपर सोलांग बैली एवं पीरपंजाल पर्वतश्रृंखला का नजारा देखने लायक रहता है। यहाँ सामने चट्टानी पहाडियों के बीच कुछ दूरी पर जोगनी फाल काफी लोकप्रिय है। यहाँ की चट्टानों से तराशी गयी शिला को नग्गर कैसल में मौजूद जगती पोट(शिला) माना जाता है। 

वशिष्ट में गर्मपानी के कई कुंड हैं। मंदिर परिसर में पुरुष एवं महिलाओं के लिए अलग-अलग कुंड बने हैं। बाहर खुले में भी ऊपर एक कुंड है। निर्बाध रुप में बह रहे तीन-चाल नलों के गर्म पानी में स्थानीय महिलाओं को वर्तन व कपड़े धोते देखा जा सकता है।
वशिष्ट गर्मपानी के पावन कुंड में डुबकी लगाकर सारी थकान व ठंड छूमंतर हो गयी। यहीं शाम हो चुकी थी, अत उस पार मानाली घूमने का समय नहीं था। सो हल्के तन-मन व प्रसन्न चित्त के साथ लेफ्ट बैंक से होकर दिनभर की स्मृतियों की जुगाली करते हुए घर की ओर कूच कर जाते हैं। 

 कुल्लू से मानाली राइट बैंक के सफर के रोमाँचक पड़ावों को पढ़ सकते हैं -  कुल्लू से मानाली वाया राईट बैंक।


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