श्रीनगर में पहली रात बीती, 1-2 डिग्री सेंटीग्रेटतापमान के बीच, लेकिन ठण्ड का अहसास कुछ अधिक
नहीं हुआ। शायद यह बिजली से गर्म होने वाली तलाई का कमाल था, जिससे बिस्तर गर्म
रहा। सुबह वर्कशॉप के लिए 9 बजे का समय दिया गया था। इसके लिए काश्मीर यूनिवर्सिटी
के ऑडिटोरियम पहुँचना था, जो यहाँ से अढाई किमी दूरी पर था और लगभग आधा-पौन घंटे
का पैदल रास्ता था। रास्ते में डल झील से होकर इसका रास्ता जाता है और डल झील के
किनारे ही पास में यह विश्वविद्यालय बसा है। होटल में नाश्ता कर हम पैदल ही चल
पड़ते हैं।
कुछ मिनट में हम डल झील के किनारे थे। झील का विहंगम दृश्य देखते ही
बन रहा था। रास्ते में सुरक्षा गार्डों का पूरा पहरा दिखा। आगे रास्ते में पहले
गेट से हम यूनिवर्सिटी में प्रवेश करते हैं। कोई अधिक पूछताछ नहीं हुई, सहज रुप
में प्रवेश मिलता है। भीतर सुरक्षा गार्डों से ऑडिटोरियम का रास्ता पूछ कर बताई गई
दिशा में बढ़ चलते हैं।
पगडंडी से होकर उस पार मुख्य सड़क तक पहुँचना था। बीच में चिनार का
जंगल मिला।
इस समय पत्ते नाम मात्र के बचे थे। लेकिन यह जंगल, इसके बीच की नीरव
शांति और आसमान छूते चिनार के पेड़ बहुत सुकून दे रहे थे। दृश्य को मोबाइल में
कैप्चर किए बिना नहीं रह सका। आगे एक-दो विद्यार्थी पैदल जा रहे थे। बीच में एक
बालक साइकल में सरपट दौड़ता दिखा। कुछ ही मिनट में हम पगडंडी के पार कैंपस के
मुख्य मार्ग पर थे।
सड़क के दोनों ओर देवदार के युवा तरुओं की कतारें, जैसे लगा कि इस नव-आगंतुक
का भाव भरा स्वागत कर रही थीं। अपने प्रिय वृक्षों के बीच, शीतल आवोहवा में पाकर
हमें लग रहा था कि जैसे मैं अपने मनभावन लोक में विचरण कर रहा हूँ। यूनिवर्सिटी के
भव्य भवन इस कैंपस की शोभा को चार चाँद लगा रहे थे। सुदूर कैंपस के चारों ओर पर्वत
व इन पर कहीं-कहीं हल्की बर्फ हमें एक नए लोक में विचरण की अनुभूति दे रही थी।
इसी तरह अपने भावों में डूबे कदमताल करते हुए लगभग आधा घण्टे में हम
ऑडिटोरियम के बाहर खड़े थे। इसके परिसर में लगे रंग-विरंगे झंडे जैसा सबका स्वागत
कर रहे थे। भवन के बाहर बड़ा सा बैनर आयोजन के मकसद को स्पष्ट कर रहा था। बाहर घास
के आंगन में प्रतिभागियों की भीड़ जुटी थी। हम भी इसमें शामिल होते हैं, उपयुक्त
काउंटर पर पंजीयन करते हैं, वर्कशॉप की किट पाते हैं और एक बेंच पर बैठकर यहाँ का
जायजा लेते हैं।
बग्ल में एक स्थानीय कॉलेज के काश्मीरी शिक्षक से संवाद होता है। उनका
बोलने का विशिष्ट लहजा हमें अच्छा लगा। चर्चा से यहाँ पर उच्च शिक्षा में राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी-2020) के लागू
होने की स्थिति का भान होता है, जिसमें 40 प्रतिशत ऑनलाइन शिक्षा का प्रावधान रखा
गया है। इसी संदर्भ में आज की कार्यशाला थी।
अंदर भव्य ऑडिटोरियम में प्रवेश कर अपना स्थान ग्रहण करते हैं। यहाँ
पंजाव, चंडीगढ़, हिमाचल, उत्तराखण्ड, लद्दाख व जम्म-काश्मीर राज्यों के उत्तर भारत
के स्वयं नोडल ऑफिसर्ज सहित कालेज के प्रिसिंपल्ज व शिक्षकों को वुलाया गया था।
यूजीसी से चेयरमैन प्रो. मनीश जोशी स्वयं पधारे थे। इनके साथ कई विश्वविद्यालयों
के वाइस-चांसलर, डीन्ज, आईआईटी, आईआईएम के प्रतिष्ठित प्रोफेसर्ज एवं शिक्षाविद
इसमें विशेषज्ञ के रुप में आए थे।
काश्मीरी स्टाइल में मंच पर दीप प्रज्जबलन हमारे लिए एक नई चीज थी। और
कार्य़शाला के प्रारम्भ में युनिवर्सिटी का कुलगीत नया रस घोलता है। यूजीसी चेयरमेन
महोदय के उद्बोधन से पता चला कि देश भर के 1200 विश्वविद्यालयों में अभी मात्र 350
ही स्वयं (SWAYAM) के ऑनलाइन कोर्सेज को अपनाए हुए हैं। जिनकी
संख्या में वृद्धि की जाने की आवश्यकता है।
सभी शिक्षकों व शिक्षण संस्थानों को बढ़चढ़ कर स्वयं पर उपलब्ध
निःशुल्क 1515 ऑनलाइन कोर्स को अपनाने के लिए प्रेरित करना है। साथ ही दिनभर
गुणवत्तापरक शिक्षा के प्रतिमानों पर गंभीर विचार-विमर्श हुआ। और विभिन्न उच्च
शिक्षण संस्थानों की वेस्ट प्रेक्टिसिज से परिचित होने का अवसर मिला।
दिन भर कई सत्रों में विचार मंथन चलता रहा। चाय व लंच के सिलसिले के
बीच शाम को चार बजे वर्कशॉप का समापन होता है।
यहाँ से देवदार के युवा तरुओं की कतारों से जड़े कैंपस से बापिस होते
हुए हम पहले गेट से बाहर निकलते हैं। सामने पर्वत श्रृंखलाएं प्रत्यक्ष थी।
यूनिवर्सिटी गेट के बाहर थोड़ा ऊपर आकर, मुख्य सड़क के उस पार नीचे पार्क में
प्रवेश करते हैं, जहाँ से डल झील का विहंगम दृश्य स्पष्ट था। झील में अपनी नाव में
बैठा अकेला नाविक इसको खवेते हुए जैसे जीवन का संदेश दे रहा था कि, ओ नदिया चले
चले रे धारा, चंदा चले, चले रे तारा, तुझे चलना होगा, तुझे चलना होगा...।
पार्क के दूसरे छोर तक टहलते हुए झील को कई एंग्ल से देखते हैं, यथासंभव कैप्चर
करते हैं। और फिर बाहर निकलकर अपने होटल की ओर चल पड़ते हैं।
डल झील के उस पार के पर्वतों, शिखर पर जमीं सफेद बर्फ औऱ इसकी गोदी
में बसी आवादी बहुत सुन्दर दृश्य प्रस्तुत कर रही थी। झील के ऊपर से उड़ते चहचाते
पक्षियों के झुंड हवा में मस्ती का माहौल बना रहे थे। पार्क में बैठे परिवार व
दोस्तों के समूह निश्चित भाव से आपसी संवाद कर रहे थे। यहाँ का ठहरा सा शांत जीवन
सुकून दे रहा था। बस झील का गंदला पानी इसमें थोड़ा व्यवधान पैदा कर रहा था। लगा
कि काश यह निर्मल होता, तो कितना बेहतर होता।
होटल में स्वागत कक्ष में पहुँचकर कल का हिसाब-किताब करते हैं और यहाँ
बैठे दक्षिण भारत के यात्रियों की समूह चर्चा सुन पता चला कि ये लोग आगे गुलमर्ग
के लिए जा रहे थे। इसी तरह आसपास पहलगाँव व सोनमार्ग लोकप्रिय डेस्टिनेशन हैं,
जिनमें सोनमर्ग अमरनाथ तीर्थयात्रा की राह का एक महत्वपूर्ण पड़ाव रहता है। होटल
से इन स्थलों के लिए घुमाने की भी उचित व्यवस्था दिखी।
इस बार समय सीमित होने के कारण बाहर श्रीनगर एक्सपलोअर करने की
संभावना न के बराबर थी। कल सुबह साढ़े सात बजे ही हमारी बस बुक थी। अतः अपनी
जिज्ञासा को शांत करने के लिए हम कमरे में जाकर काश्मीर को इंटरनेट पर ही
एक्सप्लोअर करते हैं। जिसमें श्रीनगर की लाइफ-लाइन झेलम नदी के बारे में खोजते-खोजते
पता चला कि यह बीच में वुलर लेक से होकर गुजरती है, जो एशिया की सबसे बड़ी ताजे जल
की झील है। इसका उद्गम स्थल बेरीनाग हमें रोमाँच का शिखर लगा, जहाँ भारी मात्रा
में पानी एक वृहद कुँड से निकलते हुए तीव्र वेग के साथ बाहर प्रवाहित होता है, वह
चकित करने वाला है। लगा कि कभी समय निकालकर काश्मीर के ऐसे प्राकृतिक एवं रोमाँचक
स्थलों को देखने अवश्य आएंगे।
अगली सुबह ऑटो-टेक्सी से टीआरसी बस स्टैंड पहुँचते हैं। सामने श्री आदि शंकराचार्य मंदिर पहाड़ के शिखर पर प्रत्यक्ष था। यथासंभव इसको केप्चर करते हैं।
मालूम हो श्रीअरविंद को वर्ष 1903 में इसी मंदिर परिसर में शांत ब्रह्म (अनन्त) की
अनुभूति हुई थी, जब उन्होंने विधिवत योग साधना का अभ्यास प्रारम्भ नहीं किया था।
वर्ष 1898 में स्वामी विवेकानन्द भी अपनी काश्मीर यात्राओं के दौरान यहाँ पधारे
थे। और अमरनाथ में उन्हें भगवान शिव के दर्शन हुए थे और उन्हें इच्छामृत्यु का
वरदान मिला था।
आज हमारे लिए इनके दूरदर्शन ही पर्याप्त थे। अपना भाव निवेदन कर हम बस
में बैठते हैं।
हमने जो बस ऑनलाइन बुक की थी, उसमें मात्र तीन ही सीटें भरी थीं। वाकि
बस खाली थी। काउटंर पर ही सीधे इनकी बुकिंग हो रही थी, जिनका किराया भी कुछ कम था।
श्रीनगर से जम्मु जा रहे या जम्मु से श्रीनगर आ रहे यात्रियों को हमारा सुझाव है
कि संभव हो तो वे बुकिंग की बजाए बस स्टैंड से सीधे काउंटर पर बसें बुक करें और वह
भी किफायती दामों में। सोलो ट्रेवलिंग में ऐसे रोमांचक प्रयोग कठिन नहीं। अपनी
मनपसंद सीट तथा परिवार के साथ सफर में ऐसे प्रयोग थोड़े रिस्की हो सकते हैं।
ठीक 8 बजे यहाँ से बस चल पड़ती है। अब हम बस के वायीं ओर थे, जो नजारे
आते समय नहीं देख पाए थे, उनको देखने का संयोग बन रहा था। रास्ते में श्रीनगर शहर
के पर्वतों के समीप आगे बढ़ते हुए, बीच में जेहलम नदी को पार करते हुए शहर के बाहर
निकलते हैं।
आगे मार्ग में खेत, घाटी, पर्वत, नदी, गाँव-कस्वे, सबको और अच्छी तरह
से देख पा रहे थे। काश्मीर जहाँ एक ओर हमारे कैमरे से कैप्चर हो रहा था, वहीं दूसरी
ओर हमारी आंखों से सीधे हमारे चित्त में गहरी छाप छोड़ रहा था।
सही में लग रहा था कि जैसे ईश्वर में तवीयत में काश्मीर को गढ़ा हो।
यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य, उर्बर भूमि, प्राकृतिक उत्पादों की असीम संभावनाएं,
पर्यटन के अकूत पोटेंशियल सब मिलाकर इसको स्वर्ग सा रुप दे सकता है। आवश्यकता बस
यहाँ अमन चैन शांति की है व समझदार नेतृत्व की, जो अपने स्वार्थ से अधिक जनता के
हित को समझते हों।
एक सज्जन मिले अगली सीट में, जो जम्मु जा रहे थे, इनसे मोटी-मोटी
जानकारी रास्ते भर मिलती रही। मैं जिस क्रिकेट बल्ले को पोपलर के पेड़ों से जोड़
कर देख रहा था वह गल्त निकला, इन्होंने स्पष्ट किया कि ये बैट काश्मीरी बिल्लो पेड़
की लकड़ी से बनते हैं।
काजी कुंड में बस नाश्ता के लिए रुकती है। वहाँ आलू-पराँठा, आलू की
सब्जी व चाय का नाश्ता करते हैं, जो यहाँ का लोकप्रिय नाश्ता प्रतीत हुआ। साथ में स्वाद
को बैलेंस करने के लिए दही लेते हैं। यहाँ से अखरोट 200 से 250 रुपए किलो में बिक
रहे थे। हम भी प्रसाद स्वरुप व यादगार के लिए कुछ अखरोट लेते हैं, जो स्वाद में
बहुत टेस्टी निकले। लगा कि यहाँ की मिट्टी में कुछ बात तो है, जो अखरोट इतने
टेस्टी रहे। और काश्मीर के सेब भी हमारे मनपसन्द फलों में हैं। जबकि हमारे गृह
प्रदेश में भी सेब होते हैं, लेकिन स्वाद व रसीलेपन में काश्मीर के सेब का कोई
जबाव नहीं रहता।
काजीकुंड से आगे फिर हमें बर्फ से ढ़के पहाड़ों को नजदीक से दर्शन
होते हैं, जिसको यथासंभव कैमरे व चित्त में कैप्चर करते हुए आगे बढ़ते हैं। सुरंग
के पार सुंदर वादियों से होते हुए वनिहाल रेल्वे-स्टेशन को पार करते हैं और इसी के
साथ काश्मीर घाटी की वादियाँ क्रमिक रुप से सिमटती जाती हैं
और संकरी घाटी से होते
हुए कई सुरंगों को पार करते हुए रामवन पहुँचते हैं। इस बार हम वाईं ओर से इसके नए
स्वरुप के दर्शन कर रहे थे।
आगे पुल से चनाव नदी का दृश्य देखते ही बन रहा था, जो कुछ देर साथ बना
रहा।
नदी के उस पर पहाड़ियों की गोद में पीछे छिपी घाटियाँ, वहाँ से निस्सृत हो
रहे झरने मन में कौतुक व रोमाँच का भाव जगा रहा थे। आगे फिर टनल पार कर थोड़ी देर
में बस चेनानी स्थान पर लंच के लिए रुकती है। यहाँ नए ढावे में राजमाह चावल औऱ दही
का लंच करते हैं। दही के स्थान पर देसी घी का भी विकल्प उपलब्ध था।
फिर यहाँ की फोरलेन सड़क पर बस सरपट दौड़ते हुए कटरा की ओर बढ़ती है। रास्ते
भर सडक के किनारे नीचे घाटी में छोटी सी नदी व उस पार वाईं ओर से गाँव, पहाडियों व
जंगलों को समीप से निहारते रहे, जो जाते समय हमारे लिए दुर्लभ थे। कटरा को पार
करते हुए फिर थोड़ी देर में जम्मु शहर में प्रवेश करते हैं। जाते समय पुल के नीचे
बह रहा गंदा नाला जम्मु तवी नदी थी। इसकी स्थिति देख थोड़ा विचलन हुआ कि नदी की
ऐसी स्थिति इंसान कैसे कर देता है।
शहर से गुजरते हुए राह में वाईं ओर जम्मु विश्वविद्यालय के दीदार होते
हैं और फिर आता है रेल्व स्टेशन के बाहर बस का अड्डा। अंदर स्टेशन में जाकर
काश्मीरी सेब लेते हैं और स्टेशन पर थोड़ा विश्राम करते हुए एक सेब काट कर खाते
हैं। इसके रसीले व खीरखंड मिठेपन के साथ मूड रिफ्रेश हो जाता है। फिर बस से मुख्य बस
स्टैंड तक आते हैं। स्टेशन से बसें चलती रहती हैं, मात्र 20 रुपए में लगभग चार
किमी का सफर तय करवाती हैं। आटों में शायद 2-300 रुपए से कम क्या लेते होंगे।
लोकल बस स्टैंड में गंदगी का स्रामाज्य हमें सही मायने में विचलित करता
है। इसे किसी तरह से पार करते हुए हम इंटर स्टेट बस स्टैंड पहुँचते हैं, जिसकी
स्थिति बेहतर थी। काउंटर 9 पर हमें जम्मु-हरिद्वार बस मिली। बस में एक पंडितजी
मिले जो हरिद्वार अस्थि विसर्जन करने जा रहे थे। इनसे चर्चा करने पर इस रुट की कई
जानकारियाँ मिली।
साढ़े पाँच बजे बस चल पड़ती है। जम्मु से पठानकोट, जालन्धर, लुधियाना
वाई पास, अम्बाला, यमुनानगर, भगवानपुर, रुढकी, बहादरावाद होते हुए 12 घंटे का सफर
पूरा होता है औऱ सुबह 6 बजे हम हरिद्वार पहुँचते हैं। रास्ते में पठानकोट तथा अम्बाला
के समीप बस डिन्नर व चाय के लिए रुकती है।
इस तरह हमारी तीन दिवसीय जम्मु-काश्मीर की यात्रा पूरी होती है। रास्ते
का संक्षिप्त विवरण, भाव-विचार व कुछ उपयोगी जानकारियाँ आपके संज्ञान के लिए
प्रस्तुत हैं, जो शायद पहली वार जम्मु-काश्मीर जा रहे यात्रियों के लिए कुछ काम की
हो सकती है। हमारी पहली काश्मीर यात्रा का यह वृतांत कैसा लगा, अवश्य लिखें। आपके
सुझाव और फीडबैक का हार्दिक स्वागत रहेगा।
रामबन पार करते ही हम अब एक नए परिवेश में प्रवेश करते हैं, जो तंग
घाटी, आसमान छूते पहाड़, गहरी खाइयों व चट्टानी मार्ग से होकर गुजरता है। रास्ते
में कई सुरंगें मिली और कुछ में अभी जोरों-शोरों से काम चल रहा था। सड़क के नीचे
खाई बहुत गहरी थी, सामने पहाड़ भी सीधे खड़े थे, जिनमें दुर्गम ऊँचाईयों में
घर-गाँव बसे दिखे। अधिकाँश सड़क मार्ग से जुड़े लगे। यहाँ रह रहे लोगों के
सौभाग्य, शांति-सुकून के साथ कठिनाईयों व मजबूरियों पर राह में मिश्रित भाव-चिंतन
चलता रहा।
आगे खाई कम गहरी होती गई और सामने के गाँव-घर तथा वसावट पास से दिख रहे
थे। राह में अखरोट के सूखे वृक्षों के दर्शन शुरु हो चुके थे। घरों के आसपास खेतों
व बंजर भूमि में अखरोट के वृक्ष वहुतायत में दिखते रहे। इस मौसम में वृक्ष बिना
पत्तियों के ठूंठ लग रहे थे, लेकिन आ रहे मौसम में पत्तियों व फल लगने पर निश्चित
ही ये वृक्ष यहाँ की सौंदर्य वृद्धि करते होंगे। हम तो इतनी संख्या में अखरोट के
ठूंठ पेड़ देखकर ही रोमाँचित हो रहे थे, क्योंकि इनके साथ हमारे पहाड़ी गृह प्रदेश
की यादें ताजा हो रही थीं, जहाँ मेड़ पर खेत में एक-दो पेड़ रहते हैं, जिनसे घर की
आवश्यकता भर की पूर्ति होती है। अखरोट की व्यवसायिक खेती का चलन अभी वहाँ नहीं है।
राह में सीआरपीएफ के जवान मुस्तैदी से मोर्चा संभाले दिखे। सड़क के
किनारे नद-नालों के ऊपर बन रहे फ्लाई-ऑवर भी एक नया प्रयोग लगे, जो भूस्खलन की
स्थिति में यातायात को निर्बाध बनाए रखने में उपयोगी रहते होंगे। अधिकांश अभी
निर्माणाधीन थे। घाटी के बाहर निकलने पर ही एक तैयार फलाईऑवर मिला, जिसको पार करते
ही हमारा काश्मीर घाटी की सुंदर वादियों में प्रवेश होता है।
इससे पूर्व रास्ते में तमाम छोटी-बड़ी घाटियाँ दिखीं, जहाँ से कोई
छोटी नदी व नाले नीचे मुख्य नदी में बह रहे थे। पीछे हर घाटी में पर्वत शिखरों से
लेकर बीच इनकी गोदी व सड़क के किनारे गाँव व घर आवाद मिले। तंग घाटी को पार कर अब
हम खुली घाटी में आ गए थे।
साथ ही सड़क के आस-पास की आवादी भी सघन हो रही थी। काश्मीर घाटी के
दीदार का रोमाँच भी गति पकड़ रहा था। बस में वांईं ओर के दृश्य ही कैप्चर कर पा
रहा था, आगे व दाईं ओर के दृश्यों को आंशिक रुप से ही कवर कर पा रहा था। सुंदर
प्राकृतिक परिवेश में एक नई घाटी में आगे बढ़ते हुए रास्ते में एक टनल आती है, जो
संभवतः काफी लम्बी निकली।
हम वनिहाल में थे, वाईं ओर वनिहाल रेल्वे स्टेशन की भव्य उपस्थिति दिख
रही थी, जिसके सामने आसमान छूता तिरंगा हवा में लहरा रहा था।
मालूम हो कि बनिहाल
से श्रीनगर तक नियमित रुप से रेल चलती है, यात्रा चाहें तो इस रुट का भी आनन्द उठा
सकते हैं।
गाड़ी सरपट घाटी में आगे बढ़ रही थी, शीघ्र ही हमें वाईँ ओर बर्फ से
ढके पर्वत श्रृंखला के दर्शन अपने वाईं ओर होते हैं, जिनमें बर्फ की भरपूर मात्रा
में देखकर हम आश्चर्यचकित और रोमाँचित होते हैं। हमें अनुमान नहीं था कि हमें
रास्ते में ही इतनी वर्फ देखने को मिलेगी।
सांसे थामकर हम इन्हें निहारते रहे व
यथासंभव मोबाइल में कैप्चर करते रहे। ये कौन सी पर्वतश्रृंखला है, कोई वहाँ बताने
वाला नहीं था।
रास्ते में काजीकुंड स्थान पर गाड़ी लंच के लिए रुकती है। आज शुक्रवार
का दिन था, जुम्मे की नमाज़ थी, हमारे चालक सवारियों से कहकर इसमें भाग लेने के
लिए जाते हैं। सो कुछ समय मिलता है और हम भी ढावा मालिक से कुछ संवाद करते हैं।
पता चलता है कि यहाँ सर्दियों में 4-6 फीट बर्फ गिरती है, जबकि श्रीनगर साइड कम
बर्फ पड़ती है। हमारे लिए यह एक नई जानकारी थी।
चालक के आते ही बस चल पड़ती है। आगे घाटी का विस्तार और बढ़ रहा था।
हिमाचल में सुंदरनगर से मंडी के बीच की वल्ह घाटी जैसा कुछ नजारा था। लेकिन यहाँ
लैंडस्केप कुछ अलग था।
खेतों का विस्तार पंजाब-हरियाण के मैदानी इलाकों जैसे लग
रहा था, जिसमें पोपलर की कतारवद्ध खेती बीच-बीच में दिखती गई। कई चोकोर खिड़कियों
से जड़े यहाँ के घरों का विशिष्ट बनाव यहाँ की विशिष्ट पहचान लग रही थी।
खेतों में कुछ उग रहा था, क्या था, कोई बताने वाला नहीं था। अनुमान था
कि मटर व आलू आदि की सब्जियाँ होगीं। साथ ही केसर का भी अनुमान लगा, क्योंकि बीच
में हम पंपोर क्षेत्र से गुजरे, जो केसर के लिए विश्वभर में जाना जाता है।
काश्मीर सेब के लिए भी प्रख्यात है। भारत में अधिकाँश सेब काश्मीर में
पैदा होता है। इनके बगानों को देखने की इच्छा बहुत थी, लेकिन निराशा ही हाथ लगी।
बाद में पीछे बैठे काश्मीरी भाई से पता चला कि सेब इस रुट पर कम दिखेगा, इसके
बगीचे आपको अन्दर जा कर मिलेंगे। पता चला कि शोपियां, पुलवामा, सोपोर, अनन्तनाग और
श्रीनगर जिले के ग्रामीण आंचल में सेब की उम्मदा खेती होती है। रास्ते में एक दो
बगीचे ही अपवाद रुप में दिखे।
रास्ते में घर की छतों पर सड़क के किनारे बहुतायत में बैट्स के बल्लों
के ढेर सूखते दिखे। बैट्स का विज्ञापन करती दुकानें भी रास्ते भर दिखती रहीं। लगा
कि यहाँ क्रिकेट बेटस का निर्माण एक उद्योग के रुप में विकसित है, जो काश्मीरी
विल्लो लकड़ी से बनता है।
अब हम श्रीनगर के समीप पहुँच रहे थे। रास्ते में एक नदी के दर्शन होते
हैं, जिस पर कुछ नावें चल रही थीं व अधिकाँश किनारे पर लगी थीं।
पता चला कि यही
जेहलम नदी है, जिसे श्रीनगर की जीवन-रेखा कहा जाता है। वेरीनाग स्थान इसका उद्गम
स्थल है औऱ यह बुलर लेकर से होते हुए श्रीनगर को पार करते हुए यहाँ पहुँचती है।
खेत, गाँव, कस्वों व झेलम नदी को पार करते हुए हम अन्ततः श्रीनगर में
प्रवेश करते हैं। पहाड़ों की गोद में बसे इस शहर को हम पहली बार नज़दीक से देख रहे
थे।
यहाँ के कई लैंडमार्ग भवन रास्ते में दिखते रहे। झेलम नदी भी लुकाछिपी करती
रही, कई बार इसके रास्ते में दर्शन होते रहे। सामने ऊँचे पहाड़ से घिरा श्रीनगर
हमारे सामने प्रत्यक्ष था। आखिर आठ घंटे के सफर के बाद हम दोपहर चार बजे टीआरसी
बस-स्टैंड पर थे।
यहाँ से हमारा गन्तव्य 10-12 किमी दूर था। ऑटो-टेक्सी में बैठकर यहाँ
पहुंचते हैं। मार्ग डल झील के बीच से होकर गुजर रहा था। चालक हमें रास्ते में झील
के किनारों से परिचित कराता हुआ मंजिल तक पहुँचाता है। रास्ते में काफी भीड़ थी।
पता चला कि आज हजरतबल की दरगाह में जुम्मा की नमाज़ के कारण यह भीड़ थी। इस दरगाह
को मुस्लिम आवादी का एक पावनतम तीर्थ स्थल माना जाता है।
आधा घंटे में हम निशांत बाग स्थित ट्राइडन होटल में थे। स्वागत कक्ष
में हमारा भाव भरा स्वागत होता है। कमरे में सामान छोड़ हम तरोताजा होते हैं और
काश्मीरी कहबे के साथ सफर के अनुभवों को याद कर, इनकी जुगाली करते हुए विश्राम
करते हैं। विश्वास नहीं हो रहा था कि हमारी पहली कश्मीर यात्रा सम्पन्न हो रही है
औऱ हम डल झील के समीप पर्वत शिखरों से घिरे एक होटल के कमरे में बैठे विश्राम कर
रहे हैं।
आज संयोग बन रहा था काश्मीर की चिरप्रतिक्षित यात्रा का, एक अकादमिक
कार्यशाला के वहाने। काश्मीर यूनिवर्स्टी, श्रीनगर में 15 फरवरी, 2025 के दिन
आयोजित इस कार्यशाला (SWAYAM
OUTREACH WORKSHOP) के लिए 13 फरवरी की
शाम हरिद्वार से निकल पड़ता हूँ। यात्रा का हवाई विकल्प भी था, लेकिन इच्छा थी जम्मू
से काश्मीर तक सड़क यात्रा के माध्यम से पूरे रूट के भूगोल, राह के मुख्य पड़ावों,
प्राकृतिक सौंदर्य, आकर्षणों व विशेषताओं को देखने समझने व निहारने की। साथ ही राह
में लोकजीवन को भी चलती-फिरती नज़र में अनुभव करना चाहता था।
सो हरिद्वार से हेमकुण्ट एक्सप्रैस के डिब्बे में बैठ जाता
हूँ, लोअर वर्थ की निर्धारित सीट पर। शाम को ठीक 6.30 बजे ट्रेन चल पड़ती है। चलते
ही सभी सवारियाँ अपने-अपने बर्थ को खोल कर लेट जाते हैं। हम भी लेटे-लेटे अपने सफर
को पूरा करते हैं। रास्ते में रुढ़की के पास टीटी आकर कुशल-क्षेम पूछते हुए आगे
बढ़ते हैं। रास्ते में ट्रेन में उपलब्ध डिन्नर लेते हैं। सीट पर आढ़े-तिरछे बैठे
ही भोजन ग्रहण करते हैं। फिर करवटें बदलते हुए किसी तरह से रात गुजारते हैं। लगा
कि अपनी उम्र के हिसाब से अब लोअर बर्थ में रात के सफर का समय चूकता जा रहा है।
सुबह साढ़े पाँच बजे ट्रेन जम्मु पहुँचती है। रास्ते में सवारियाँ
अपने-अपने स्टेशनों पर उतरती चढ़ती गईं। लुधियाना के आसपास फिर टीटी साहब के दर्शन
होते हैं, जो नई सवारियों का ही हालचाल पूछ आगे बढ़ते हैं। बाहर झांकने का अधिक
मतलब नहीं था, क्योंकि अंधेरे में बाहर के नजारे सब एक जैसे लग रहे थे।
लगभग 12 घंटे की यात्रा के बाद सुबह पाँच बजे हम जम्मु स्टेशन
पर उतरते हैं।
ट्रेन आगे कटरा तक जा रही थी, जिसमें माता वैष्णों देवी के
दर्शनार्थी बैठे हुए थे। स्टेशन पर वेटिंग रूम की खोज में पूरे स्टेशन की पूरी
परिक्रमा कर डालते हैं। स्टेशन के सामने के उत्तरी छोर तक पहुँचते हैं, जो जनरल
वेटिंग रुम था। फिर पूछने पर पता चलता है कि एसी वेटिंग रुम नीचे दक्षिण में सबसे
निचले छोर पर है, जहाँ से आगे बढ़ते हुए हम पुल से उतरकर सामने से गुजरे थे।
वेटिंग रुम में फ्रेश होकर, चाय-बिस्कुट के साथ थोड़ी गर्माहट पाते
हैं। और थोड़ा देर बैठे-बैठे ध्यान करते हुए ट्रेन सफर की अकड़न-जकड़न से भी निजात
पा लेते हैं और रिचार्च होकर पौने सात बजे बाहर बस-स्टैंड की ओर बढ़ते हैं, जो
स्टेशन के बाहर मात्र 200-300 मीटर की दूरी पर सामने हैं। यहीं से जम्मु
काश्मीर रोडबेज ट्रांस्पोर्ट कॉरपोरेशन (JKRTC) की बसे
चलती हैं।
बस सामने खड़ी थी, रेडबस एप्प से बुक की हुई सीट में जाकर बैठते हैं।
सामने आगे एक बुजुर्ग बस में बैठे थे और सवारियाँ एक-एक कर चढ़ रही थीं। हमारे
आगे-पीछे व बग्ल में राजस्थान के कुछ युवा बस में चढ़ते हैं, जिनमें अधिकाँश पहली
बार वहाँ जा रहे थे। आगे व सबसे पीछे एक-दो काश्मीरी भाई लोग तथा एक सरदार
माँ-बेटा बैठते हैं। बुजुर्ग की कन्डक्टर से बहस होती है, जो सुबह साढ़े पाँच बजे
से अगली सीट का चयन कर बैठे थे। जबकि यह सीट ऑनलाइट बुकिंग हो चुकी थी।
बस के बग्ल में दूसरी ऐसी ही बस खड़ी थी, जिसमें समानान्तर सवारियाँ
भरी जा रही थी। नई सवारियों को उसमें भरा जा रहा था। इस तरह हमें समझ आया कि ऑनलाइन
बुकिंग के बाद जो सीटें बचती हैं, उनमें ऑफलाइन सवारियों को सीट मिलती हैं, जिनकी
बुकिंग वहीं सामने काउंटर पर हो जाती है तथा इनका किराया भी कुछ कम रहता है।
जम्मु से रामनगर तक का सफर
ठीक 8 बजे हमारी बस चल पड़ती है। ड्राइवर काफी माहिर लग रहा था और
गाड़ी को पूरे कंट्रोल में तेजी से दौड़ा रहा था। ये हर पहाड़ी इलाकों में यात्रा
का अनुभव रहता है, जहाँ के लोक्ल चालक यहाँ की सर्पिली राहों पर आए-दिन चलते रहते
हैं और अचेतन मन में इनको रास्ते के हर मोड़, उतार-चढ़ाव व बारीकियां फिट रहती
हैं।
शहर को पार करते हुए जम्मु शहर के मुख्य भवन व लैंडमार्क ध्यान
आकर्षित करते रहे। रास्ते में एक नदी को पार किए, पानी काफी कम था और गंदला भी।
नदी से अधिक नाले की तरह लग रही थी, उसके पुल को पार कर आगे बढ़ते हैं। वाइं और
बैठे होने के कारण दाईँ ओर के नजारे आंशिक रुप से ही दिख रहे थे। लेकिन इतने में
ही रास्ते का मोटा-मोटा अंदाज हो रहा था। हाँ हमारी विडियो केप्चरिंग इसके कारण एक
तरफा ही अधिक हो पा रही थी। योजना थी कि बापिसी में दूसरी ओर बैठकर रही सही कसर
पूरी कर लेंगे।
रास्ते में ही वाईं ओर आईआईटी जम्मु के दर्शन होते हैं, आगे
नदी के किनारे पहाड़ी के संग बसे जम्मु शहर का घाटी नुमा लैंडस्केप भी दिख रहा था।
इसी राह में आगे जंगल के बीच सुनसान जगह टीले पर आईआईएम, जम्मु के भव्य भवन
के दर्शन होते हैं।
इसी के साथ हम शहर के बाहर निकल चुके थे और आगे कटरा की ओर बढ़
रहे थे, जो संभवतः यहाँ से लगभग 30 किमी आगे रहा होगा।
अब हमारी बस पहाडियों की गोद में सर्पदार सड़क के साथ झूमती हुई सरपट
आगे बढ़ रही थी। फोरलेन सड़क पर सफर काफी खुशनुमा लग रहा था, रास्ते में कहीं
हरे-भरे, तो कही चट्टानी पहाड़ों व वादियों के दर्शन हो रहे थे। इसी क्रम में हम
पहली सुरगं पार करते हैं। आगे हमारे रास्ते में कटरा का कस्बा पड़ा। दूर से
ही पहाड़ों पर माता वैष्णो देवी के मार्ग की जिगजैग सड़कें व सफेद रंग के
भवन दिख रहे थे।
माता को अपना भाव निवेदन करते हुए हम आगे बढ़ते हैं औऱ सहज ही याद
आ रहे थे, पिछले ही वर्ष अक्टूबर माह में अपनी पहली माता वैष्णो देवी की यात्रा के
यादगार पल।
अगले लगभग 50-70 किमी हम नदी के किनारे घाटी के बीच सपाट सड़कों पर
झूमती हुई गाड़ी में बैठे बाहर की वादियों, गाँव-कसवों व प्राकृतिक नजारों को
देखते रहे। सुदूर पहाड़ियों के शिखर पर हरे जंगलों व विरल गाँव-घरों को निहारते
हुए सफर का आनन्द लेते रहे। रास्ते में खाने-पीने व
ठहरने की रंग-बिरंगी दुकानों व होटल की कतारे ध्यान आकर्षित कर रही थीं। लगा कि इस
रुट पर पर्यटकों की भीड़ के कारण लोगों के लिए रोजगार के ये एक महत्वपूर्ण साधन
रहते होंगे।
खेती-बाड़ी व बागवानी की गुंजाइश यहाँ की पहाड़ी ढलानों पर बहुत अधिक
नहीं दिख रही थी। रास्ते में चिनैनी (Chenani) स्थान पर नाश्ते के लिए हमारी गाड़ी
रुकती है। नाश्ते में आलू-पराँठा व राजमाह की दाल परोसी गई और साथ में प्रयोग के
तहत नमकीन चाय ली।
थाली के आकार के एक परौंठे से पेट भर गया औऱ साथ में नमकीन चाय
हमारे लिए नया अनुभव था। बाहर उस पार घाटी के पीछे बर्फ से ढकी चोटियाँ रोमाँच का
भाव पैदा कर रही थीं, लेकिन इनके बारे में अधिक जानकारी देने वाला कोई जानकार नहीं
दिखा।
यहाँ नाश्ते के बाद गाड़ी चल पड़ती है औऱ एक टनल के पार दूसरी घाटी
में प्रवेश का अहसास होता है। साथ ही पता चला कि इस टनल के कारण अब रास्ता लगभग 50
किमी कम हो गया है, नहीं तो ऊपर पहाड़ी मार्ग से पटनी टॉप पार करते हुए यहाँ
पहुंचना होता था। यह कुछ ऐसे ही लगा जैसे कुल्लू-मानाली में रोहतांग पास की चढ़ाई
को पार करने की बजाए अटल टनल बनने से अब हम सीधे लाहौल घाटी में प्रवेश कर जाते
हैं। वहाँ भी दो-तीन घंटे की बचत होती है औऱ यहाँ भी लगा कि इस टनल बनने से दो-तीन
घंटों की बचत हुई होगी।
नई घाटी में दाईं ओर नीले रंग की नदी के किनारे हम आगे बढ़ रहे थे,
जिसके विहंगम दर्शन आगे पुल पार करते हुए होते हैं।
यह चनाव नदी है, जो
हिमाचल प्रदेश के लाहौल-घाटी में चंद्र-भागा नदी के रुप में बहती है, तांदी स्थान
पर चनाव का नाम लेती है और फिर उदयपुर से होती हुई, चम्बा व फिर जम्मु-काश्मीर में
प्रवेश करती है। ग्लेशियर हिमखंडों के पिघलने से निकले इसके निर्मल जल की झलक इसके
नील वर्णीं स्वरुप से स्पष्ट हो रही थी, जो आँखों को ठंड़क और चित्त को शीतलता का
सुकून भरा अहसास दिला रही थी।
पुल पार कर अब नदी हमारे बाइं ओर से बह रही थी। नदी के उस पार एक
सुंदर सी बसावट दिखी, इसे एक बड़ा सा कस्वा कह सकते हैं, जिसका नाम रामबन
पता चला, इसका विहंगम दृश्य इस साइड से देखते ही बन रहा था। अगले कुछ मिनट हम इस कस्वे के समानान्तर सफर
करते रहे और इसके पीछे की पहाड़िंयों, विरल वादियों, खेत व वगानों के मनभावन
दृश्यों को यथासंभव केप्चर करते रहे। रास्ते में ही एक खुला बस स्टैंड दिखा, जहाँ
से एक सड़क दायीं ओर गाँव की ओर जा रही थी। पता चला कि यह सब रामबन ही चल रहा था।
यह रोचक जानकारी भी पता चली कि रामबन जम्मु से काश्मीर यात्रा का
मध्य बिंदु है। यहाँ तक लगभग 150 किमी का सफर पूरा कर चुके थे और आगे श्रीनगर
तक 150 किमी का सफर तय करना शेष था। हालाँकि रास्ते में कई सुरंग बनने से अब यह
दूरी कम हो रही है।