शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

सार्थक यौवन की दिशा धारा



वसंत के आगमन के साथ सृजन के, उल्लास के, क्राँति के स्वर फिर चहु दिशाओं में गूंजने लगे हैं। प्रकृति का हर कौना एक नई स्फूर्ति, एक नए उत्साह, एक नई उमंग के साथ तरंगित हो चला है। ऐसे में सृष्टि का हर जीव प्रकृति के माध्यम से झर रहे परमेश्वर के दिव्य प्रवाह में वहने के लिए विवश है बाध्य है। जीवन के प्रति एक नई सोच, एक नई संकल्पना, एक नए उत्साह का उमड़ना स्वाभाविक है। यदि कोई ह्दय इन विशिष्ट पलों में भी अवसाद ग्रस्त है, जीवन के प्रति उत्साह-उमंग से हीन है, तो समझो जीवन का प्रवाह कहीं बाधित हो चला है, उसका यौवन कहीं ठहर गया है।

यौवन का उमर से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं। यदि ह्दय में उत्साह, उमंग और कुछ कर-गुजरने का जज्बा है तो वह आयु में वयोवृद्ध होता हुआ भी युवा है। और यदि ह्दय उत्साह से हीन, जीवन की चुनौतियों से थका हारा और हर चीज को नकारात्मक भाव में लेने लगा है, तो समझो वह युवा होते हुए भी बृद्ध हो चुका है। जीवन में सार्थकता की अनुभूति से शून्य ऐसा जीवन एक भारभूत त्रास्दी से कम नहीं। ऐसे जीवन के प्रवाह को उत्साह, उमंग, सृजन से भरना ही जीवन का वसंत है, जीने की कला है और सार्थक यौवन से भरा जीवन है।

लेकिन यह यौवन कहीं आसमान से नहीं टपकता, न ही किन्हीं जोशीले नारों के लगाने से, क्रांतिकारी भाषण देने भर से पूरा होता। यौवन का यह दिव्य प्रसून तो दीर्घकालीन आत्म संयम, तप-साधना, सत्यानुसंधान, सतत् कर्तव्यनिष्ठा, निस्वार्थ सेवाभाव, अखण्ड जागरुकता और आत्म बलिदान, त्याग की पृष्ठभूमि में खिलता है। संकीर्ण स्वार्थ, क्षुद्र अहंकार के पाप-ताप भरी घुटन में यह दम तौड़ने लगता है, मुरझाने, कुम्हलाने लगता है। ऐसे में जीवन के तनाब, चिंता, उदासी, भय, खिन्नता, अवसाद और विषाद का पर्याय बनते देर नहीं लगती।

प्रस्तुत है सच्चे यौवन की दिशा धारा जिसके बल पर किसी भी उम्र का व्यक्ति वासंती उल्लास के साथ सृजन पथ पर बढ़ते हुए समस्याओं से भरे समाज-संसार में समाधान का हिस्सा बनकर एक सार्थक जीवन की अनुभूति कर सकता है।

परिवर्तन की शुरुआत खुद से -
युवा जो बदलाव बाहर देखना चाहता है, उसकी शुरुआत खुद से करता है। चारों ओर की अव्यवस्था, अन्याय, गरीबी, बुराई, गंदगी, भ्रष्टाचार का जिम्मा सरकार, प्रशासन या दूसरों पर छोड़ने की वजाए पहले अपनी जिम्मेदारी तय करता है। व्यवस्था परिवर्तन से पहले वह बदलाव की शुरुआत खुद से करता है और इसके बाद ही वाहर परिवर्तन की हुँकार भरता है।

अपनी जिम्मेदारी का भाव -
अपने जीवन की असफलता, कमियों, दुर्बलताओं का दोषारोपण किसी दूसरे पर, या भाग्य या भगवान पर नहीं करता। इनकी पूरी जिम्मेदारी लेते हुए, अपने चिंतन, चरित्र और व्यवहार का गहन विश्लेषण करते हुए इनके बीज को अपने अंदर खोजता है और खुद को दुरुस्त करते हुए खुद को सुधारने की साहसिक पहल करता है। और अपने हाथों अपने भाग्य का विधान को सुनिश्चित के सत्प्रयास में संलग्न रहता है।

स्वधर्म की पहचान -
सच्चा यौवन सृजनशील होता है, उसके अपने व्यक्तित्व की समझ समग्र व गहरी होती है। अपनी मौलिक योग्यता, क्षमता, रुचि के अनुरुप उसकी जीवन लक्ष्य तय होता है। किसी की देखा देखी या समाज के अंधे चलन का वह शिकार नहीं होता। अपनी स्वतंत्र सोच व मौलिक पथ का वह अनुगामी होता है और अकिंचन सा ही सही किंतु समाज के प्रति ठोस योगदान के साथ जीवन की एक सार्थकता अनुभूति के साथ जीता है।

आदर्श का निर्धारण -
सार्थक यौवन के जीवन का आदर्श सदा ऐसा कुछ होता है जिसमें जीवन की चरम और परम सम्भावनाएं साकार होती हों। आश्चर्य नहीं कि भारतीय परम्परा में आदर्श सदा आध्यात्मिक शिखर पर आरुढ़ व्यक्ति रहे हैं या ऐसे महामानव, देवमानव जिनका जीवन समाज, राष्ट्र, संस्कृति व मानवता के लिए पूरी तरह समर्पित रहा हो। स्मरण रहे कि बौने आदर्शों के साथ यौवन के प्रसून कभी अपने पूर्ण विकास को नहीं हासिल कर पाते।

जीवन का समग्र विकास -
सार्थक यौवन जीवन को समग्रता में जीता है। वह व्यक्तित्व के सर्वाँगीण विकास की रुपरेखा बनाता है। शारीरिक, बौद्धिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक सभी पहलुओं को लेकर चलता है। नित्य अपने जीवन लक्ष्य और आदर्श की कसौटी पर इनको कसता हुआ जीवन का सर्वाँगीण विकास सुनिश्चित करता है। इनके साथ अपनी मौलिक क्षमता, प्रतिभा के अनुरुप समाज के उत्थान-उत्कर्ष में अपना योगदान देता है।

समस्याओं के सार्थक समाधान का हिस्सा -
सार्थक यौवन जीवन की, समाज की, युग की समस्याओं से संवेदित-आंदोलित होता है। और अपने दायरे में इनके समाधान में सदा सचेष्ट रहता है। अपने ही संकीर्ण स्वार्थ और क्षुद्र अहंकार, अपने ही परिवार के पोषण तक उसका जीवन सीमित नहीं हो सकता। वह समाज, राष्ट्र और युग की समस्याओं के एक सार्थक समाधान का हिस्सा बनकर जीवन जीता है।

सोमवार, 11 अप्रैल 2016

मात्र मेरी सफाई, तुम्हारी दुहाई से काम चलने वाला नहीं



इतना तो धीरज रखना होगा, इंतजार करना होगा

उंगलियाँ उठ रही हैं, फिर नियत पर आज
नहीं कोई बात नयी, तल्खी जानी-पहचानीं,
नहीं कुछ नया, बक्रता शाश्वत, कुचाल नहीं अनजानी।

खुद से ही है हमें तो शिकायत-शिक्वे गहरे कल के,
हर रोज ठोक पीट कर, कर रहे हैं दुरुस्त खुद के तंग दरवाजे,
ऐसे में स्वागत है इन प्रहारों का, औचक ही सही,
ये प्रहार तो हमें लग रहे हैं, प्रसाद ईश्वर के।

लेकिन यह आलाप, प्रलाप, विलाप क्यों इतना,
गर सच के पक्ष में है जेहन, तो फिर तुम्हारे सांच को आंच कैसी,
क्यों नहीं छोड़ देते कुछ बातें काल की झोली में,
अग्नि परीक्षा से तप कर, जल कर, गल कर,
 आएगा सच निखर कर सामने।

सच हमारा भी और सच तुम्हारा भी,
सच के लिए इतना तो धैर्य रखना होगा,
इतना तो इंतजार करना होगा।

मात्र मेरी सफाई से और तुम्हारी दुहाई से तो काम चलने वाला नहीं,
काल के गर्भ में हैं जबाव सवालों के, सत्य के, न्याय के, इंसाफ के,
इसके पकने तक कुछ तो धैर्य रखना होगा, इंतजार करना होगा।
 

मंगलवार, 29 मार्च 2016

यात्रा वृतांत – अमृतसर सफर की कुछ यादें रुहानी, भाग-2

राधा स्वामी सत्संग डेरा ब्यास

अंतिम दिन दो विकल्प थे– वाघा बोर्डर और डेरा व्यास। ट्रेन शाम को थी। अभी कुछ घंटे थे। विकल्प डेरा व्यास को चुना। इसके वारे में भी बहुत कुछ सुना रखा था। बस स्टैंड से सीधा बस व्यास के लिए मिल चुकी थी। 40 किमी यहां से। रास्ते में हरे भरे खेतों व कुछ गांव कस्वों को पार करती हुई बस हमें मुख्य मार्ग में छोड़ चुकी थी। यहाँ से कुछ दूरी पर व्यास रेल्बे स्टेशन तक पैदल पहुँचे। स्टेशन पर सेमल का वृहद वृक्ष इतिहास की गवाही दे रहा था। स्टेशन के पुल को पार करते ही हम उस पार बस स्टेंड पर थे। कुछ ही मिनट में बस आ चुकी थी। बस कुछ देर में खुलने बाली थी। इस दौरान स्टेशन की हरियाली, स्वच्छता और शांति को अनुभव करते रहे। इतना साफ स्टेशन पहली बार देख रहे थे। बस के गेट खुल चुके थे। हम पीछे कंडक्टर के पास ही बैठ गए। कंडक्टर डेरे का ही सेवादार था। सवारियों का भावपूर्ण बिठाते हुए, इनके मुख से कुछ सतसंग के स्वर भी फूट रहे थे। जिनमें दो बातें हमें महत्वपूर्ण लगीं, बिन गुरु जीवन का वेड़ा पार नहीं हो सकता और बिन बुलाए कोई यहाँ आ नहीं सकता।
बस भरते ही चल पड़ी। रास्ते में हरे भरे गैंहूं के खेत, बौर से लदे आम के बगीचे एक सुंदर दृश्यावली को सृजन कर रहा था। कुछ ही मिनट में हम डेरे के मुख्य द्वार को पार कर चुके थे। मार्ग के दायीं और पार्किंग की वृहद व्यवस्था चकित करने वाली थी, शायद हजारों बाहन एक साथ यहाँ खड़े हो सकते होंगे। इसके अंतिम छोर पर हम बस स्टैंड पहुंच चुके थे। हल्की बारिश हो रही थी। आश्रम में प्रवेश करने के लिए मोबाइल कैमरा आदि बाहर ही जमा करना अनिवार्य है। अतः इस तकनीकी बोझे को बाहर ही छोड़कर हल्का होकर अंदर प्रवेश किए। हालाँकि रास्ते के सुंदर दृश्यों को कैमरे में कैद करने और मोवाइल में झांकने की आदत कुछ देर जरुर परेशान की। पहली बार लगा कि बिना मोबाइल किस तरह से जिंदगी का अभिन्न अंग बन चुका है, जिसके बिना एक खालीपन सा कचोटने लगता है। 
अंदर पूछ ताछ कक्ष से आगे की जानकारी मिली। आश्रम का विस्तार कई 7 किमी की लम्बाई में है, सो पैदल तो इसे देखना सम्भव नहीं था। अंदर रिक्शा व कैव खड़े थे। दोपहर के दो बज चुके थे। स्थानीय परिजनों के सुझाव पर रिक्शा को चुना और लंगर की ओर चल पड़े। रास्ते में सफेद फूलों से लदे बागुकोशाव नाशपाती के बगीचे, आगे हवामहल और रास्ते के दोनों ओर की हरियाली प्रकृति की गोद में आने का सुखद अहसास दे रही थी। कुछ मिनटों के बाद रिक्शा रुक गया, उतर कर हम कुछ दूर पैदल चलते हुए लंगर स्थल पहुँचे। बहुत बड़ी छत के नीचे वृहद लंगर स्थल दिखा। पता चला यहाँ एक समय में 80,000 लोग भोजन कर सकते हैं। बाहर किनारे में प्लेट, गिलास आदि लेकर लंगर में बैठ गए। स्वादिष्ट पसादा लेकर पेट पूजा की। इसके बाद मौसम की ठंड़क को देखते हुए गिलास भरकर गर्म चाय ली। यहाँ बैठकर चाय की चुस्की के साथ भीड़ को देखकर कई विचार जेहन में कौंधते रहे। यहां युवा, महिलाएं, प्रौढ़, वृद्ध हर वर्ग के लोग दर्शनार्थी भीड़ का हिस्सा दिखे, लेकिन एक स्व अनुशासन दिख रहा था। लगा वातावरण का कितना असर हो सकता है। 
गिलास आदि धोकर वाहर निकले। रास्ते में एक युवक हमें मिला। हमें बैग टाँगे हुए उसकी जिज्ञासा थी कि हम कोई अजनवी बाहर से आए हैं। जल्दी ही हमारा परिचय हो गया। समयाभाव के कारण हमारे लिए सबकुछ देखना तो सम्भव न था, हमारा मुख्य मकसद यहाँ के साहित्य स्टाल तक पहुँचना था और इस आध्यात्मिक संस्था को जानने के भाव से कुछ मूल साहित्य खरीदना था। हमारी प्राथमिकता को देखते हुए वह उस ओर गाईड के रुप में साथ चलते रहे। रास्ते में डेरे के इतिहास व शिक्षाओं को सार संक्षेप से हमें परिचित कराते रहे।

यहाँ की साधना पद्वति में कर्मकाण्ड से मुक्त रखा गया है। सुमिरन, भजन प्रमुख आंतरिक साधन हैं और प्रेम व सेवा वाह्य साधन। यहाँ आश्रम की देखभाल सेवादार करते हैं, कोई नौकर नहीं है। छोटे बड़े काम का कोई भेद नहीं है। डेरा प्रमुखखुद को सबसे छोटा सेवादार मानते हैं। यहाँ परिसर के कूढ़े को गाढियों में लादते युवाओं को देखा, पता चला ये सेवाधारी हैं। आगे सड़क बन रही थी, यहाँ भी सेवादार सेवा दे रहे थे। आगे कैंटीन में भी सेवादारों को देखा। रास्ते में बज्री के पहाड़ों को देखा, जिनको सेवादार कूट कूट कर तैयार कर रहे थे। यहाँ की सारी सड़कें इंटे इन्हीं द्वारा तैयार की जाती हैं।

शीघ्र ही हम लाइब्रेरी में थे। एक बहुत बड़े हाल में यहाँ तमाम पत्र पत्रिकाएं रखी गयी हैं। एक सचित्र मोटी सी किताव हाथ लगी। 15-20 मिनट में इनके पेज पलटते हुए यहाँ के इतिहास से मोटा सा परिचय मिलता गया। समझ में आया कि इस युग में परिवार-गृहस्थी के बीच में आध्यात्मिक जीवन अधिक व्यवहारिक और प्रभावशाली हो सकता है। 

आश्रम व्यास नदी के किनारे है। हालाँकि अभी व्यास नदी यहां से काफी दूर जा चुकी हैं।कुल मिलाकर यहाँ संत परम्परा की एक अभिनव कढ़ी को सामूहिक मानव चेतना को उच्चतर आयाम तक पहुँचाने के प्रयोग को देखकर बहुत अच्छा लगा। आज के स्वार्थ, अहंकार से भरे मार काट बाले युग में खुद को गला ढलाकर कर गुरु, ईश्वर के पथ पर बढ़ाने के संत मार्ग को देखकर, सुखद अनुभूति हुई कि इंसानियत जिंदा है। मानवता का उज्जवल भविष्य ऐसे ही सम्मिलित प्रयासों का सत्परिणाम हो सकता है।


यहाँ से आटो में व्यास रेल्बे स्टेशन आए और ट्रेन से अमृतसर पहुँचे। जहाँ दून-अमृतसर एक्सप्रैस में बैठकर अपने गन्तव्य की ओर बापिस चल दिए। गोल्डन टेंपल और डेरा व्यास की स्वर्णिम और रुहानी यादों के साथ सुवह 8 बजे हरिद्वार पहुँचे। (समाप्त)
 
यात्रा का पहला खण्ड आप नीचे दिए लिंग में पढ़ सकते हैं -

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