रविवार, 28 फ़रवरी 2021

हरिद्वार से चण्डीगढ़ वाया हथिनीकुँड

गाँव-खेत-फ्लाइऑवरों व नहरों के संग सफर का रोमाँच


हरिद्वार से चण्डीगढ़ लगभग दो सवा दो सौ किमी पड़ता है, जिसके कई रूट हैं। सबसे लम्बा रुट देहरादून-पोंटा साहिब एवं नाहन से होकर गुजरता है। दूसरा बड़ी बसों का प्रचलित रुट वाया रुढ़की-सहारनपुर-यमुनानगर-अम्बाला से होकर जाता है। छोटे चौपहिया वाहनों के लिए शोर्टकट रुट वाया हथिनीकुंड वैराज से होकर है, जिस पर दिन के उजाले में सफर का संयोग पिछले दिनों बना। फरवरी माह के तीसरे सप्ताह में सम्पन्न यात्रा कई मायनों में यादगार रही, जिसे यदि आप चाहें तो इस रुट का चुनाव करते हुए अपने स्तर पर अनुभव कर सकते हैं।

इस रुट की खासियत है, गाँव-खेतों, छोटे कस्वों एवं गंगा-यमुना नदी की नहरों के किनारे सफर, जिसमें कितनी तरह की फसलों, फल-फूलों व वन-बगानों से गुलजार रंग-बिरंगे अनुभव कदम-कदम पर जुड़ते जाते हैं। साथ में मिलते हैं लोकजीवन के अपने विविधतापूर्ण मौलिक रंग-ढंग, जो अपनी खास कहानी कहते प्रतीत होते हैं।



हरिद्वार से बाहर निकलते ही गंगनहर के किनारे सफर आगे बढ़ता है। महाकुंभ 2021 के लिए बने नए फलाई-ऑवर के संग सफर एकदम नया अनुभव रहा, क्योंकि सड़क पहले से अधिक चौड़ी, सपाट, सुंदर और सुव्यवस्थित हो गई हैं, साथ ही एक तरफे ट्रैफिक के चलते काफी सुरक्षित एवं आरामदायक भी। फिर फ्लाई-ऑवर के टॉप से नीचे शहर, गंगा नदी इसके मंदिर-आश्रमों एवं चारों ओर दूर पहाड़ियों के दृश्यों के नजारे स्वयं में दर्शनीय लगे।

गुरुकुल कांगड़ी विवि से होकर ज्वालापुर को पार करते ही सफर शहर के बाहर गंगाजी की छोटी सी धारा (नहर-कुल्ह) के संग आगे बढ़ता है और फिर आता है उत्तराखण्ड संस्कृत विवि और थोड़ी देर में बहादरावाद, जहाँ वाईं ओर सड़क रुढ़की के लिए मुड़ जाती है, लेकिन हमारा रुट दायीं ओर से होकर गंग नहर के संग आगे बढ़ता है, कुछ देर में नहर को पार कर हम भगवानपुर की ओर बढ़ रहे थे। रास्ते में खेत-खलिहानों के दर्शन शुरु हो जाते हैं। बीच-बीच में छोटे कस्बे आते रहे, नाम तो सही ढंग सें याद नहीं, हाँ बीच में बोर्ड देख पता चला कि पिरान कलियर से दो किमी दूरी पर आगे बढ़ रहे थे। मालूम हो कि पिरान कलियर शरीफ, सूफी संत अलाउद्दीन अली अहमद साबिर को समर्पित दरगाह है, जो हिन्दु और मुस्लिम दोनों के लिए महान आध्यात्मिक ऊर्जा का स्थान माना जाता है।

आगे मार्ग में मुस्लिम बहुल आवादी के दर्शन मिले। खेतों में गैंहूं की फसल तैयार हो रही थी, बीच में जौ की खेती भी दिखी। इसके साथ कहीं-कहीं सरसों के खेत कहीं खालिस पीला रंग लिए हुए थे, तो कहीं गैंहूं के बीच हरा पीला रंग लिए अपनी खास उपस्थिति दर्शा रहे थे। 


गन्ने की खेती भी रास्ते भर होती दिखी, कहीं ट्रैक्टरों में गन्ने को लादकर फेक्ट्री में ले जाया जा रहा था तो कहीं सड़क के किनारे गन्ने से ताजा गुढ़ बनते कई ठिकाने दिखे, जो अपनी धुँआ उगलती भट्टियों के साथ बिखरती मिट्ठी खुशबू के साथ अपना परिचय दे रहे थे।

बीच-बीच में आम के बगीचे मिले। इस सीजन में भी आम के फलों को देखकर आश्चर्य हो रहा था, जो सड़क के किनारे दुकानों पर सजे थे। इस बेमौसमी फल के साथ कुछ स्थानों पर अखरोटों से सज्जे ठेले भी दिखे, जिन्हें टोकरियों में सजाया गया था व इन पर काश्मीर के कागजी अखरोट होने के लेबल लगे थे।


सफेदे के पेड़ तो खेत की बाउँडरी पर बहुतायत में दिखे, लेकिन इनके साथ जो अधिक सुंदर लग रहे थे, वे थे पॉपलर के पेड़, जिन्हें खेतों के बीच कतारबद्ध उगाया गया था। आसमान को छूते इनके सीधे खडे पेड़ कौतुहल जगा रहे थे कि इनका क्या मकसद रहता होगा। पता चला कि इन्हें माचिस की तिल्लियों से लेकर प्लाईवुड व पैंसिल के लिए उपयोग किया जाता है, इससे कागज भी तैयार होता है और इनकी फसल किसानों के लिए आमदनी का बेहतरीन स्रोत्र रहती है। यह बहुत तेजी से बढ़ने वाला पौधा है, जो 50 से 165 फीट तक ऊँचाई लिए होता है, जो 5 से 7 साल में 85 फीट व इससे अधिक ऊँचाई पा लेता है। रास्ते में इनकी लकड़ी के लट्ठों से लद्दे ट्रैक्टर एवं ट्रकों को देखकर इसके व्यापार की झलक भी मिलती गई।

इस तरह कई खेत, कस्वे व गाँवों को पार करते हुए सफर आगे बढ़ता रहा। एक दूसरी नहर रास्ते में मिलती है, जिसका जल आसमानी नीला रंग लिए काफी निर्मल दिख रहा था। रास्ते में मिली गंग नहर जहाँ काफी गहरी थी, वहीं यह नई नहर उथली थी, लेकिन अपने दोनों ओर की दृश्यावलियों के साथ अधिक सुंदर एवं भव्य लग रही थी।


अगले लगभग आध-पौन घंटे तक इसके किनारे सुखद सफर आगे बढ़ता रहा, यथासंभव इसके सुंदर नजारों को कैप्चर करते रहे और उस पार बसे गाँव, घर, खेत, बगीचों को निहारते हुए सफर का आनन्द लेते रहे।

अब तक हम इसके उद्गम स्रोत्र की ओर पहुँच चुके थे, आवादी विरल हो चुकी थी, नदी के तट व नहरों के निकास मार्ग दिखे, जिनमें कुछ सूखे प़ड़े थे, तो कुछ में पानी बह रहा था। हम हथिनीकुंड बैराज की ओर बढ़ रहे थे। इसके उत्तर में जल सरोवर के रुप में एकत्र था, लेकिन जालीदार दिवार के कारण इसकी पूरी झलक नहीं मिल पा रही थी। वायीं ओर जल ना के बराबर था, ऐसा लग रहा था कि बाढ़ की स्थिति में ही इससे जल छोड़ा जाता होगा। अगले मुहाने पर जल नीचे एक नहर के रुप में बाहर छोडा गया था, जो आसमानी रंग लिए अपनी निर्मलता का सुखद अहसास दिला रहा था। बाँध के छोर पर एक ऊँट के दर्शन हमें थोड़ा चकित किए। अब हम इसके किनारे दायीं ओर से नीचे बढ़ रहे थे। लगभग आधा किमी तक हम नहर के किनारे दायीं ओर से बढ़ते गए, सुंदर नजारों का शीतल व सुखद अहसास लेते रहे। आश्चर्य़ हुआ कि दिल्ली में गंदे नाले का रुप लिए यमुनाजी यहाँ कितनी साफ व निर्मल थी।



मालूम हो कि हथिनी कुंड बैराज पोंटा साहिब की ओर से आ रही यमुना नदी पर बनी हुई है। इसका जल यमुना नदी के अतिरिक्त पूर्वी और पश्चिमी दो नहरों के माध्यम से निचले इलाकों में खेती के लिए सिंचाई के काम आता है। साथ ही बारिश में बाढ़ की स्थिति में यहाँ से जल को नियंत्रित करके आगे छोड़ा जाता है, हालाँकि पानी के बढ़ने पर इसके फाटकों के खुलने पर नीचे दिल्ली सहित मैदानी इलाकों में स्थिति विकराल हो जाती है, जिस कारण हथिनी बैराज का नाम एक वरदान के साथ एक खतरनाक संरचना के रुप में भी जोड़कर देखा जाता है। लेकिन आज तो हम इसके शांत-सौम्य स्वरुप के दर्शन कर रहे थे।

अब हम नीचे जंगल व खेतों के बीच आगे बढ़ रहे थे। दायीं ओर पीछे उत्तराखण्ड की छोटी शिवालिक पहाड़ियाँ दिख रही थीं और इसकी गोद में दूर तक फैले खेत-खलिहान एवं गाँव। रास्ते में ही एक ढावे में दोपहर के भोजन के लिए रुकते हैं। हम हरियाण में प्रवेश कर चुके थे और यहाँ भोजन में हरियाण्वी तड़का चख्न्ने को मिला। यहाँ मात्र तंदूरी रोटी और दाल-सब्जियाँ ही उपलब्ध थीं। चाबल का अभाव दिखा। बापसी के सफर में भी हथिनीकुँड के पास के वैष्णों ढावे में भोजन का यही अनुभव रहा। यहाँ सब्जी में मिर्च पर्याप्त मिली, जिसका दही के साथ संतुलन बिठाते रहे, हालाँकि लाल मिर्च पाउडर की वजाए यहाँ हरी मिर्च काटकर भोजन में उपयुक्त होती दिखी।


इसी रास्ते में सड़क के किनारे सेंट की दुकानें सजी मिली। फलों की दुकानें तो पूरे मार्ग में कदम-कदम पर आवादी बाले इलाकों में दिखती रही, जहाँ मुख्यता कीनूं, अमरुद, केला, अंगूर जैसे मौसमी फल बहुतायत में दिखे।

आगे का सफर जगाधरी से होकर गुजरा, जो यमुनानगर से पहले ही वाईपास रुट से मुड़ जाता है, जिसमें हम प्रचलित अम्बाला रुट से दूर ही रहे। यह सफर भी नए रुट पर था, जिस पर किसान आन्दोलन का असर साफ दिखा। मार्ग के टोल प्लाजा विरान पड़े थे, कहीं भी पैसा बसूली होती नहीं मिली। सड़क पर्याप्त चौड़ी और फ्लाई ऑवर से लैंस मिली। पंचकुला तक यह चौडी, स्पाट सड़कें हमारे सफर को सुकूनदायी बनाए रही।


 
इस रुट में भी खेत खलिहान, गाँव मिले, लेकिन पिछले रुट से कुछ चीजें नई दिखीं। यहाँ स्ट्रा बैरी की फसल अधिक मिली, जिनको सड़क के किनारे डब्बों में सजाकर बेचा जा रहा था। इनके खेत भी रास्ते में मिले, जिनको कतारबद्ध सुखी तरपाली की छाया में उगाया जाता है। इस राह में आम-अमरुद आदि के बगीचे कम दिखे, फूलगोभी, पत्तोगोभी, मटर जैसी सब्जियों के प्रयोग अधिक दिखे। लगा पास की शहरी आबादी की खपत के लिए इन्हें कैश क्रोप के रुप में तैयार किया जाता होगा। पोपलर के पेड़ इस रुट में भी खेतों में बीच-बीच में अपनी भव्य उपस्थिति दर्शा रहे थे।

साथ ही इस राह में एक नयी चीज दिखी, जो थी ईंट के भट्टे, जहाँ ईंटें तैयार की जा रही थी। शायद जहाँ जमीन अधिक उपजाई नहीं होती, एक खास किस्म की मिट्टी पाई जाती है, वहाँ ऐसे प्रयोग किए जाते होंगे। पंचकुला में प्रवेश करने से पूर्व हिमाचल प्रदेश की नाहन साईड़ की पहाडियाँ मिलती हैं, जिनमें कीकर के जंगल बहुतायत में दिखे और साथ ही बहुमंजिली ईमारतों के दर्शन भी शुरु हो गए थे, जिनमें शहर की फूलती आबादी को समेटने के प्रयास दिखे।

इसी के साथ थोडी देर में पंचकुला से चण्डीगढ़ शहर में प्रवेश होता है। इसके प्लानिंग के तहत बनाए गए सेक्टर, सुंदर गोल चौराहे, सड़कों के किनारे पर्याप्त स्पेस में सजे भव्य एवं सुंदर घर, सड़क के दोनों किनारों पर हरे-भरे सुंदर वृक्षों की कतारें, सिटी ब्यूटीफुल में प्रवेश का सुखद अहसास दिला रहे थे और सफर मंजिल की ओर बढ़ रहा था। इस तरह कई सुंदर चौराहों को पार कर हम अपने ठिकाने पर पहुँचते हैं। आज की शाम आस-पास चण्डीगढ़ में कुछ विशिष्ट स्थलों के नाम थी। धर्मशाला में फ्रेश होकर हम इनके दर्शन के लिए निकल पड़ते हैं, जिनका जिक्र अगली ब्लॉग पोस्ट में पढ़ सकते हैं।

अगले दिन बापसी का सफर एक और शॉर्टकट रुट से होकर रहा, इसमें पंचकुला के थोड़ा आगे से बायीं ओर मुड़ जाते हैं, जिसकी राह में नरायणगढ़ और बिलासपुर जैसे कस्बे पड़े। हिमाचल प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ के बिलासपुर के बाद आज हम हरियाणा के बिलासपुर से परिचित हुए। इस मार्ग में सिक्खों के तीर्थ स्थल बहुतायत में दिखे। रास्ते में काफी दूर तक गुरुगोविंद सिंह मार्ग एवं इस पर बंदा बहादुर सिंह चौक एवं कुछ गुरुद्वारे मिले। बापसी में फिर हथिनीकुंड बैराज पहुँचते हैं, जहाँ बापसी में इससे निस्सृत नहर के किनारे ढलती शाम के साथ एक यादगार सफर पूरा होता है। आगे गंग नहर और फिर हर-की-पौड़ी को पार करते हुए अपने गन्तव्य स्थल पहुँचते हैं। इस तरह दिन के उजाले में हरिद्वार से चण्डीगढ़ वाया हथिनीकुंड का सफर एक यादगार अनुभव के रुप में अंकित होता है।


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