शुक्रवार, 27 सितंबर 2019

यात्रा वृतांत – मेरी दूसरी झारखण्ड यात्रा


सब दिन होत न एक समान


दिसम्बर 2014 के पहले सप्ताह में सम्पन्न मेरी पहली झारखण्ड यात्रा कई मायनों में यादगार रही, ऐतिहासिक रही। सहज स्फुर्त रुप में उमड़े भावों को अभिव्यक्ति करता मेरी पहली झारखण्ड यात्रा की ब्लॉग पोस्ट हिमवीरु ब्लॉग की सबसे लोकप्रिय पोस्ट निकली, जिसे आज भी यात्रा वृतांत सर्च करने पर गूगल सर्च इंजन के पहले पृष्ठ में देखा जा सकता है।
लगभग 5 वर्ष बाद पिछले दिनों (16-20जुलाई2018) सम्पन्न हमारी दूसरी यात्रा पहली यात्रा का एक तरह से फोलो अप था। लेकिन समय की धारा कहाँ कब एक समान रहती है, इस बार के अनुभव एकदम अलग रहे। अकादमिक उद्देश्य से सम्पन्न यह यात्रा थर्ड ऐसी में रिजर्वेशन का संयोग न होने के कारण स्लीपर क्लास में रही, जो तप एवं योगमयी अनुभवों के साथ फलित हुई, लगा हमारे किन्हीं प्रारब्धों के काटने की व्यवस्था इसमें थी। काफी समय बाद रेल में सफर का संयोग बन रहा था, जो हमें हमेशा की तरह रोमाँचित कर रहा था। इस बार हमारे साथ Where is my train ऐप्प की अतिरिक्त सुबिधा थी, जिसमें हमें ट्रेन का स्टैंडर्ड समय, उसका हर स्टेशन व उसकी लेट-लतीफी की सटीक जानकारी उपलब्ध हो रही थी।

रात 10 बजे हरिद्वार से दून एक्सप्रेस में चढ़ते हैं। साइड अपर बर्थ में सीट मिलने के कारण चैन से रात का सफर कट गया, सुबह नित्यकर्म से निपटने के बाद चाय व नाश्ता के साथ दिनचर्या आगे बढ़ती है। ट्रेन भी कहीं छुकछुक तो कहीं फटड़-फटड़ कर अपनी मंजिल की ओर सरपट दौड़ रही थी। पठन सामग्री और मोबाईल साथ होने के कारण हम यात्रा के अधिकाँश समय अपने अध्ययन, चिंतन-मनन व विचारों की दुनियाँ में मश्गूल रहे। रास्ते में जहाँ लेटे-लेटे व पढ़ते-लिखते बोअर हो जाते, चाय की चुस्की के साथ तरोताजा होते। जहाँ थक जाते, वहाँ करबट पलट कर छपकी लेते।


पता ही नहीं चला कि कब हम बनारस पहुँच चुके थे। यहां गंगामैया व बनारस शहर के दर्शन की उत्कट जिज्ञासा एवं इच्छा के चलते हम नीचे सीट पर उतरे व गंगाजी के किनारे बसे बनारस शहर को पुल से निहारते रहे। यहाँ गंगाजी काफी बिस्तार लिए दिखी, जिस पर नावें चल रहीं थी व कुछ किनारे पर खड़ी थी। पुल को पार करने के कुछ मिनट बाद हम काशी नगर से गुजर रहे थे। यहाँ ट्रेन किन्हीं कारणवश रुक जाती है। ट्रेन ऐसी जगह खड़ी थी कि यदि हम पीछे पानी लेने जाते तो ट्रेन छुटने का ड़र था और आगे दूर-दूर तक पानी का काई स्रोत नजर नहीं आ रहा था। 


ट्रेन के समानान्तर दूसरी ट्रेन रुकती है, जिसकी पेंट्रीकार से पानी की गुजारिश करते हैं, लेकिन कोई व्यवस्था नहीं हो पाती। पानी के कारण गला सूख रहा था। उपलब्ध पानी गर्म होने के कारण प्यासे कंठ को तर नहीं कर पा रहा था। चिल्लड़ पानी ही ऐसे में एक मात्र समाधान था। ठंडे पानी की खोज इस कदर विफल रही कि अंततः थकहार कर बैठ गए और काशीबाबा को याद किए, कि तेरी नगरी में पीने के पानी की भी कोई व्यवस्था नहीं, यह कैसे हो सकता है। पुकार गहराई से एकांतिक रुप ले चुकी थी व बाहर पानी की खोज बंद हो चुकी थी।
ट्रेन भी आगे सरकना शुरु हो गई थी। इसी बीच पानी-पानी की आवाज आती है। एक लम्बा सा नौजवान ठंडे पानी की बोतल के साथ हमारे ढब्बे में प्रवेश करता है। यह पल हमारी मुराद पुरा होने जैसे लग रहे थे। इनसे हम एक नहीं दो बोटल पानी की लेते हैं और पानी इतना मीठा निकला, लगा जैसे गंगाजल पी रहे हैं। तहेदिल से धन्यवाद की पुकार उठी। पूछने पर कि इतना मीठा पानी कहाँ से लाए, नौजवान का बिनम्र सा जबाब था कि साहब हम क्या जाने, हम तो पानी बेचते हैं। उसके जबाब का लेहजा, बिनम्र स्वभाव, चेहरे का सरल किंतु तेजस्वी स्वरुप व स्वाभिमानी व्यक्तित्व, हमें विश्वास नहीं हो रहा था कि कोई पानी बेचने वाला आम व्यक्ति सामने खड़ा है। ह्दय के भावों में हम कहीं गहरा उतर चुके थे, संवाद जैसे काशीबाबा से परा-पश्यंती स्तर पर चल रहे थे।


ऐसा ही अनुभव हमारा बापसी में कानपुर शहर के पास का रहा। यहाँ भी ट्रेन काफी देर रुकी रही। हालांकि इस बार हम पानी की उचित व्यवस्था कर रखे थे। किंतु गर्मी से तप रही ट्रेन की छत पूरे डिब्बे को तपा रही थी। गर्मी और नमी के बीच ठहरी गाड़ी ने डिब्बे को तपा रखा था। सहज ही स्मरण आ रहे थे इन पलों में अलीपुर जेल की तंग कोठरी में बैठे श्रीअऱविंद, आसनसोल जेल की कालकोठरी में कैद आचार्य़ श्रीराम, जिन्होंने जेल को ही तपस्थली में बदलकर जीवन के गहन सत्य को पा लिया था। याद आ रहे थे तिलक, गांधीजी व नेहरु जिन्होंने जेल को ही अपनी सृजन स्थली में रुपांतरित कर कालजयी रचनाओं को सृजित किया था। हम भी इन पलों को स्वाध्याय-तप व योगमय बनाने का प्रयास कर रहे थे और मन को समझा रहे थे कि ये पल कुछ देर के हैं, ये भी बीत जाएंगे। और थोड़ी ही देर में आश्चर्य तब हुआ जब बादल उमड़ पड़े, कुछ बरस गए और साथ ही ट्रेन भी चल पड़ी। फिर हवा के ठंडे झौंकों के साथ विकट समय पार हो चुका था। 
खेर, धनवाद की ओर बढ़ रही रेल यात्रा में आगे कुछ देर तक हम बाहर के नजारों को निहारते रहे। राह में हरे-भरे खेत आँखों को ठंडक तो मन को सकून देते रहे।


बीच में ही हमें शाम होती है, रात भर के सफर के बाद हम सुबह 4 बजे धनवाद पहुँच चुके थे, जहाँ से हमें दूसरी ट्रेन, वनांचल एक्सप्रेस अगले चार घंटे में राँची पहुंचाने वाली थी। मार्ग में सुबह हो रही थी। रास्ते में कटराजगढ़ और फुलवर्तन स्थलों में पत्थर व कोयले के पहाड़ों को पार करते हुए हम आगे बढ़े, जो स्वयं में एक नया एवं अनूठा अनुभव था।
रास्ते में कुछ स्थानों पर फाटक को पार करती ट्रैन के साथ इंतजार करती अनुशासित जनता के दृश्य सुखद लगे। इससे भी अधिक खुशी हो रही थी चलती ट्रेन से तड़ातड़ शॉट लेते हुए ऐसे नजारों को कैप्चर करना व इनमें से अपने अनुकूल एक सही व सटीक शॉट को पाना। इस ब्लॉग के अधिकाँश शॉट इसी तरह चलती ट्रेन से लिए गए, आखिर ट्रेन हमारी पसंद के नजारों के लिए रुकने के लिए बाधित कहाँ थी।



 इसी तरह रास्ते में पलाश के पेड़ और बाँस के झुरमुटों के शॉट लिए गए, जो यहाँ बहुतायत में पाए जाते हैं।



 रास्ते में कई नालों के साथ कुछ छोटी-मोटी नदियां दिखीं, जो पता चला कि सब मिलकर दामोदर नदी में समा जाती हैं। रास्ते में चंद्रपुरा जंक्शन पर सूर्याेदय का स्वर्णिम नजारा पेश होता है। राह में बोकारो स्टील प्लांट के दूरदर्शन होते रहे, जहाँ से कोयले को माल गाड़ियों के डब्बों में आगे सरकाया जा रहा था। 


इस बार यात्रा का समय अलग था, सो अनुभव भी कुछ अलग रहे। इस बार मोबाईल कैमरा साथ होने के कारण डिब्बे के दरबाजे पर खड़े होकर बाहर के नजारों को निहारते रहे व उचित दृश्य् को केप्चर करते रहे। रास्ते में किसानों को बहुतायत में बेलों की जोड़ी के संग खेतों को जोतते पाया। यहाँ धान की पनीरी भी विशेष ढंग से खेतों के बीचों-बीच उगायी जाती है।

खेतों में अधिकांशतः महिलाओं को भी धान की रोपाई करते पाया। हमारी जानकारी में यह धान की रोपाई का प्रचलित चलन है, पुरुष बैलों को जोतते हैं, तो महिलाएं धान की रोपाई करती हैं। ऐसे ही खेतों की पृष्ठभूमि में रास्ते में दूर एक गुम्बदाकार चट्टानी पहाड़ मिला। ऐसा पहाड़ हम जिंदगी में पहली बार देख रहे थे व यह हमारे मन में कई जिज्ञासाओं व कौतुक को जगा रहा था। हम आश्चर्य कर रहे थे कि ऐसे चट्टानी पहाड़ पर चढ़ाई कितनी कठिन होती होगी, इसके शिखर तक लोग कैसे पहुँचते होंगे। पूछने पर कोई हमें इस पहाड़ के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं दे पाया। इस पहाड़ को हम ट्रेन से निहारते रहे, जब तक कि यह दृष्टि से औझल न हुआ।


खेतों के साथ जंगल तो रास्ते भर मिलें, लेकिन गंगाघाट के बाद जंगल का नजारा अलग ही था। पाँच वर्ष पूर्व हम इस क्षेत्र में जो छोटी पौध देखे थे, वे अब बड़े हो चुके हैं, लगा वन विभाग ने इनमें और इजाफा किया है। 
निसंदेह रुप में किसी भी रेल्वे ट्रेक या मोटर मार्ग के दोनों और वृक्षारोपण व वनों की बहुतायत सफर को कितना सुंदर, सुकूनदायी एवं शीतल बनाती है, यह यहाँ देखकर अनुभव हो रहा था।



इस तरह हम राँची पहुँचते हैं, पाँच साल पहले के स्टेशन से आज का स्टेशन अलग नजर आ रहा था। लगा प्रधानमंत्री मोदीजी ने जो सफाई अभियान चला रखा है, उसका असर हो रहा है। स्टेशन पर ही मशीनें खड़ी थी। सामने ही इनको पूरे प्लेटफॉर्म की सफाई करते देखा। सफाई को लेकर विकसित हो रही यह सजगता एक शुभ संकेत है, देश की प्रगति का आशादायी मानक है। 

स्टेशन से बाहर निकलते ही बारिश की हल्की फुआर भी शुरु हो गई थी, जिसे हम प्रकृति द्वारा यहाँ अपना स्वागत अभिसिंचन मान रहे थे। अपना अकादमिक कार्य पूरा होने के बाद हम पुनः स्टेशन की ओर आते हैं, जहाँ पर वॉकिंग डिस्टेंस पर मौजूद विश्वविख्यात आध्यात्मिक संस्थान, योगदा सोसायटी के मुख्यालय जाने का पावन संयोग बनता है। 



पिछली वार समय अभाव के कारण यहाँ नहीं पधार पाए थे, जबकि यह रेल्वे स्टेशन से एकदम पास है। जिस आध्यात्मिक पत्रिका को हम मुद्दतों से खोज रहे थे, आज हमें वह उपलब्ध हो रही थी। साथ ही कुछ दुर्लभ साहित्य भी हमें यहाँ उपलब्ध हुआ, जो स्वाध्याय एवं शोध की दृष्टि से उपयोगी था। यहाँ महायोगी परमहंस योगानन्द के कक्ष में ध्यान के कुछ पल विताए। पूरा परिसर प्रकृति की सुरम्य गोद में बसा है, इसका हरा-भरा, साफ-सुथरा, शांत-एकांत परिसर दिव्यता से ओतप्रोत है, जिसे यहाँ आकर अनुभव किया जा सकता है।

रात को बापसी का सफर तय होता है। दिन में पुनः कानपुर के पास तपोमय पलों का जिक्र हम पहले ही कर चुके हैं। कानपुर से आगे बरसात की फुआर ने सफर को खुशनुमा कर दिया था। सुबह दिल्ली आईएसबीटी पर पहुँचते हैं। इस समय काँबड़ मेला चल रहा था, सो कांबड़ियों की भीड़ के बीच सीधे हरिद्वार के लिए बस कठिन थी, देहरादून से डायवर्टिड रुट ही हमें उचित लगा। 


यहाँ शुरु में पसीने से तर-बतर होने का अभ्यास एवं मनोभूमि काम आयी, लेकिन जैसे ही बस आगे बढ़ी, ठंडी हवा रास्ते भर स्वागत करती रही। साथ ही यह रास्ता हरे-भरे खेतों, आम-अमरुद के बगीचों व साल के जंगलों से भरा अधिकाँशतः सुकूनदायी रहा। देहरादून से हरिद्वार बस हमें सीधे देसंविवि के गेट पर उतारती है। इस तरह कुछ नयी यादों, जीवन के अनुभवों व सीख के साथ झारखण्ड की दूसरी यात्रा सम्पन्न होती है। जो पहली यात्रा से तुलना करने पर संदेश दे रही थी कि जीवन चलने का नाम है, समय कब किसके लिए ठहरता है। और फिर किसी ने सच ही कहा है कि, सब दिन होत न एक समान।
 

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